Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 700
________________ .304. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * फल स्वरूप होनेसे ) कुछ दलिक एक प्रकारसे शुद्ध बन जाते हैं, और उसका उदय होता है इसे मिश्रदृष्टि कहते हैं, और जब इतने दलिये अतिशुद्ध बन जाते हैं तथा उनका उदय होता है तब सम्यग्दृष्टि कहा जाता हैं। इस संसारमें मिश्रदृष्टिवाले जीव बहुत ही कम, सम्यग्दृष्टिवाले जीव इससे अनंतगुने तथा इससे भी अनंतगुने जीव मिथ्यादृष्टिवाले हैं। इन दृष्टियोंका अभ्यास करके अथवा उनको समझकर मिथ्या तथा मिश्रदृष्टिका त्याग करना चाहिए और सम्यग्दृष्टिको प्राप्त करनी चाहिए ! बिना सम्यग्दृष्टि. ज्ञानक्रिया अथवा चारित्रयका कोई मूल्य नहीं है / मोक्षका मूलबीज मी यही है। सच्ची दृष्टि अथवा सच्ची श्रद्धा-यह जीवनकी मूलभूत जरूरत है, जिस बातका स्वीकार हरे / कोई करेगा ही। इस विषयमें बहुत कुछ जानने योग्य है, जिसे ग्रन्थान्तरसे देखना चाहिए। शंका-सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि ये दोनों एक ही चीज है कि अलग-अलग ? समाधान-यों तो एक प्रकारसे दोनों चीज लगभग एक सी है फिर भी दोनों के बीच बहुत अल्प भेद भी रहता है। क्योंकि दोनोंकी कक्षा तथा कारणोंमें भेद है / इनमें छद्मस्थ ही सम्यगदर्शनी और केवली सम्यगदृष्टि ही होते हैं / क्योंकि मोहनीय कर्मके दलिये जिनके उदयमान होते हैं और अपाय स्वरूप मतिज्ञान ,जिनमें होता है उनको ही सम्यगदर्शन संभवित बनता है / लेकिन इन दोनोंका जिसने सर्वथा विनाश किया है ऐसे केवलीको सम्यग्दृष्टि ही संभवित बनती है / इस प्रकार दर्शनके बजाय दृष्टि अनेकगुना महान् है / सिर्फ इतना ही नहीं, सम्यगदर्शन और सम्यग्दृष्टिके काल तथा क्षेत्रके बीच भी बहुत-सा अंतर ( भेद, फरक ) है / 'दर्शन' में तो पौद्गलिक असर मौजूद (उपस्थित) होती है, जब कि 'दृष्टि में उसका सर्वथा अभाव है और जो स्पष्ट आत्मिकगुण स्वरूप उदयमान होता है। १२-दंसण (दर्शन) इस शब्दके सम्यक्त्व, श्रद्धान, चारित्र, अभिप्राय, उपदेश, सामान्य बोधग्रहण, निराकार बोध इत्यादि अनेक अर्थ, शास्त्र और उनके अंगोपांगोंमें बताये हैं। लेकिन यहाँ तो 'दर्शन' शब्द सिर्फ सामान्य अथवा निराकार बोधके अर्थमें समझना है / 601. जेन शास्त्रीने तो 'सम्यग्दर्शन' नामके चैतन्य (आत्मिक) गुण की भूरिभूरि प्रशंसा की है तथा उसको अत्यधिक महत्त्व भी दिया है / मनुस्मृति जसे जैनेतर (अजैन ) ग्रन्थकारने भी जैन मान्यताको ही प्रतिध्वनित करते जो कहा है-सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न बध्यते / दर्शनेन विहीनस्तु संसारः प्रतिपद्यते // (मनु. अ. 6) वह अपेक्षासे ठीक ही है /

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