Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 737
________________ * संज्ञाद्वार . . .. 1. "दीर्घकालिक्युंपैदेश 2. हेतुवादोपदेश और 3. द्रष्टिवादोपदेश / इन्हीं तीन संज्ञाओंसे जो युक्त होता है उसे 'संज्ञी' कहा जाता है। लेकिन एक ही जीवमें ये तीनों एक साथ होनी ही चाहिए ऐसा नियम न समझें। 1. दीर्घकालिकी - जिसमें दीर्घकालका स्मरण होता है, अर्थात् जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिंता, विमर्श इत्यादिकी विचारणा की जाती है, उसे दीर्घकालिकी कहते हैं। ___ जिस प्रकार 'ईहा' अर्थात् सदर्थकी समीक्षा, बादमें 'अपोह' अर्थात् करनेका निर्णय, वादमें 'मार्गणा' अर्थात् अनुकूल संयोग क्या है ? उसका विचार करना, बादमें 'गवेषणा' अर्थात् प्रतिकूल धर्म कौन-कौनसे हैं ? इनकी विचारणा, तत्पश्चात् 'चिन्ता' अर्थात् ऐसा क्यों हुआ ? अब अभी इसका क्या किया जायँ तथा भविष्यमें उसके विषयमें क्या-क्या सोचें आदि त्रैकालिक पर्यालोचन किया जाता है। ये प्रस्तुत संज्ञाके धर्म हैं। उत्तरोत्तर उक्त विचारोंको सर करनेके बाद अब 'विमर्श' अर्थात् निर्णय करता है कि "यह चीज इस प्रकारकी ही हो सकती है, यह चीज भूतकालमें अमुक प्रकारकी ही थी और भविष्यमें उसका ऐसा ही होगा" यह जिस प्रकार कोई आँखोंवाला मनुष्य चिराग आदिकी रोशनीके सहायसे पदार्थका ज्ञान स्पष्ट रूपसे प्राप्त कर सकता है, उसी प्रकार यह विमर्श, मनोलब्धिसम्पन्न ऐसे मनोद्रव्यके आलम्बनसे उत्पन्न होता है। जिससे पूर्वापर अनुसंधान करने यथावस्थित अर्थनिर्णय कर सकता है / 1. इसकी संक्षिप्त परिभाषा यह है कि कोई भी चीजक अतीत, वर्तमान तथा अनागत ये तीनों काल संबंधी अर्थका अपने क्षयोपशमके अनुरूप सोचनेवाली जो शक्ति है, उसे 'दीर्घकालिकी' संज्ञा कहा जाता है। ऊपरके कथनानुसार ऐसी संज्ञावाला जीव कुछ साल पहले अमुक कार्य अमुक रीतसे किया था, इसका नतीजा अमुक आया था, अब आज उस प्रकारसे करनेपर कौनसा नतीजा सामने आयेगा और भविष्यमें भी इसका नतीजा क्या आयेगा ? इस प्रकारकी दीर्घ, लम्बा, गहरा, साधक-बाधक संयोगोंका ख्याल करनेपूर्वक वैचारिक शक्ति रखता है। यह संज्ञीकी बात हुई। .. 665: दीर्घवर्जीको सिर्फ 'कालिकी' शब्दसे भी पहचाना जा सकता है / दीर्घकालका जिसमें स्मरण हो वह। . 666. उपदेशः कथनम्-इस प्रकार उपदेश शब्दका अर्थ 'कथन' भी कर सकते हैं। 667. संज्ञानं संज्ञा, सम्यगजानातीति संज्ञा /

Loading...

Page Navigation
1 ... 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756