________________ .346 * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * स्वभाव, कमर पर हाथ रखकर रास्तेमें लटक-मटककर बोलना-चलना, संक्षिप्तमें स्त्री जीवन प्रधान गुणोंका प्राधान्य हो ऐसा पुरुष नपुंसक कहलाता है। इसलिए उसे 'पुरुषनपुंसक'के रूपमें पहचानते हैं। इस प्रकार तीन वेदके साथ तीन लिंगका भी संबंध होनेसे उनका स्वरूप यहाँ समझाया गया है। [345] इस प्रकार चौबीस द्वारोंका वर्णन समाप्त हुआ अवतरण-प्रथम '343' गाथा पूर्ण होते ही ग्रन्थ समाप्त तो हो ही गया था लेकिन तदनन्तर ग्रन्थकारने ही लघुतर संग्रहणीकी दो गाथाएँ जो बतायी थीं वे मी पूर्ण. हो गयी है। इनमें '343 ' गाथाओंमें तो 72 गाथाएँ प्रक्षेपात्मक थीं। आगमोक्त सुप्रसिद्ध लघुतर संग्रहणी स्वरूप दो (344-345) गाथाएँ. मी सविस्तारसे कह चुके हैं। लेकिन अब कुल चार गाथाओंका अर्थ कहते हैं। ये गाथाएँ श्रीचन्द्रमहर्षिका संतानोंने अथवा अन्य किसीने क्षेपकके रूपसे रख दी है। यद्यपि यहाँ पर वे गाथाएँ प्रस्तुत भी नहीं है, लेकिन पहली आवृत्तिमें दी गयी थी इसलिए पुनः देता हूँ। इस : गाथामें अठारह भावराशियोंके नाम मिलते हैं। तिरिआ मणुआ काया, तहाऽगवीआ चउक्गा चउरो। देवा नेरइया वा, अट्ठारस भावरासीओ // 346 // [प्र. गा. सं. 73 ] गाथार्थ-१. तिर्यंच, 2. मनुष्य, 3 काय और 4. अग्रबीज आदिके चार चतुष्कोंको निम्नानुसार समझें। 1. तिर्यच चतुष्कमें-दोइन्द्रिय, तीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीव / 2. मनुष्य चतुष्कमें-कर्मभूमि, अकर्मभूमि, अंतर्वीप तथा संमूच्छिम जातिके / 3. काय चतुष्कमें-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस (तेउ)काय तथा वायुकायका ग्रहण करें / 4. अग्रबीजोंमें-मूलबीज, स्कंधबीज, अग्रबीज तथा पर्वबीज / इस प्रकार कुल 16 भेद हुए। अव देव तथा नरकको मिलाकर कुल 18 भेद भावराशिके समझें / // 346 // . 672. नपुंसक अनेक प्रकारके होते हैं। पुरुषके रूपमें जन्म लेनेके बाद पीछेसे वह स्त्री रूप तथा स्त्री रूपमें जन्म लेनेके बाद पीछेसे वह पुरुष रूप भी बन जाते है। इस प्रकार पीछेसे- भी नपुंसक बन जाते हैं।