Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 753
________________ * ग्रन्थकर्ताका परिचय और 'संग्रहणीरत्न'का उल्लेख * तथा चौथी ये दो गाथाएँ ही हैं, 24 दंडकमें इन्हीं गाथाओंका अवतरण महत्त्वपूर्ण रहा है। इन्हीं दो गाथाओंका प्राधान्य ध्यानमें रखकर समग्र कृतिको पूर्वाचार्योंने भी इसी नामसे सूचित की हो यह संभाव्य है / दंडकके टीकाकार भी दंडकको ‘लघुसंग्रहणी' नाम देनेको लालायित हुए हो तो असंभाव्य नहीं है। इस तरह यहाँ 'संग्रहणीरत्न,' व्यवहारमें बड़ी संग्रहणीके नामसे परिचित, अनेक विषयोंके भण्डार जैसा इस रोचक बोधक, महान् ग्रन्थका भाषांतर पूर्ण हुआ। अन्तमें देव-गुरु कृपासे शरीरके अत्यन्त प्रतिकूल संयोगोंके बिच भी पूर्णता प्राप्त यह अनुवाद पाठकोंके सम्यक ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की पुष्टि, वृद्धिके लिए हो तथा सर्व के मंगल तथा कल्याण का निमित्त बनो ! यही एक अभ्यर्थना / प्रान्तमें मतिमंदता, शीघ्रता, अनुपयोग आदिके कारण श्री सर्वज्ञकथित कथनसे कोई भी विपरीत प्ररूपणा हुई हो तथा मुद्रणकी जो कुछ अशुद्धियाँ रह पाई हों उसका श्रीसंघके समक्ष त्रिविध रूपमें क्षमायाचनाके साथ मिच्छामिदुक्कडं चाहता हूँ और मेरी अपनी क्षतियोंका निर्देशन करनेकी पाठकोंसे विनम्र बिनती करता हूँ / [349 ] ... ( मूल गाथा २७४-प्रक्षेप गाथा 75, संपूर्ण गाथामान=३४९) . यहाँ महान् संग्रहणी ग्रन्थका भाषान्तर समाप्त होता है जैन जयति शासनम् /

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