Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 739
________________ * संशाद्वार . तर्क प्रायः वर्तमानकाल तक ही सीमित होनेसे कईबार ऐसा भी बनता है कि वर्तमान समयके दुःखसे ऊबकर उससे छुटकारा पानेके लिए सुखका मार्ग खोजते हैं। लेकिन भूत-भविष्यको परस्पर संकलित विचार करनेकी विशिष्ट बुद्धिके अभावसे कईबार सुखके लिए की गयी प्रवृत्ति दुःखका कारण बन जाती है और अतीतके अनुभवोंकी स्मृति भी रहती नहीं है / और भावि सोच-विचार करनेकी तीव्र शक्ति न होनेसे वे धूपको छोड़कर छाँवमें चले तो जाते हैं लेकिन यह जगह दूसरे प्रकारसे अधिक कष्टदायक हो जायेगी इस बातका ध्यान नहीं रखेंगे। क्योंकि यह संज्ञा विशेष करके वर्तमान समयका ही बोध कराती है। यह संज्ञा दो इन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके समस्त समूच्छिम जीवोंमें होती है इसलिए उन्हें भी 'संज्ञी' तो मानना पड़ेगा ही। दूसरी एक बात यह भी समझ लीजिए कि-पृथ्व्यादि पाँच एकेन्द्रिय जीवोंको मी इसी संज्ञासे 'असंज्ञी' माना जाता है। ये जीव भी बुद्धिपूर्वक इष्टानिष्ट प्रवृत्ति-निवृत्ति करते नहीं हैं। यद्यपि आहारादि संज्ञा होनेसे इन्हीं जीवोंके लिए भी 'संज्ञी' विशेषणका प्रयोग क्यों न करे ऐसा तर्क हो सकता है, लेकिन ऊपर देख आये हैं उस प्रकार अत्यंत अव्यक्त रूप होनेसे उसे यहाँ छोड़ दिया है। .... 3. द्रष्टिवादोपदेश ( द्रष्टिवादोपदेशिकी )-प्रथम शब्दार्थ-भावार्थको देखते हैं। द्रष्टि दर्शन और वाद-उसका कथन, अर्थात् द्रष्टिवादका कथन उपदेशकी अपेक्षाको बतानेवाली जो संज्ञा है वह। ..दूसरा अर्थ सम्यग्दर्शनादि संबंधक कथनकी अपेक्षायुक्त अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्श्रुतज्ञानकी अपेक्षायुक्त जो संज्ञा है उसे द्रष्टिवादोपदेशिकी कहा जाता है। . इन समीका संकलित अर्थ यह हुआ कि-जो जीव निश्चित सम्यग्दृष्टि होते हैं और अपने विशिष्ट श्रतज्ञानके क्षयोपशमवाले और योग्य रूपसे हिताहितमें प्रवृत्ति-निवृत्ति करनेवाले हैं उन्हें दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञावाले जीव कहे जाते हैं। यों तो यह संज्ञा सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे चारों गतिमें होती है, लेकिन यहाँ पर . मुख्यतः विशिष्ट श्रुतज्ञान तथा विशिष्ट चारित्रको लक्षित करके ही कथन किया जाता है, इसलिए मनुष्योंको लेकर ही यह संज्ञा घटित की जाती है। जिन मनुष्योंमें सम्यगदर्शन इत्यादि गुण होते हैं उन्हें ही यह संज्ञा प्राप्त हो सकती है।

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