Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 734
________________ * 338 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . प्रत्येक जीव मात्र अपनी त्वचा के छिद्रोंसे लोमाहारको अविरतरूपसे ग्रहण करता ही रहता है। अब प्रश्न तो यह है कि हवा अथवा आकाशमें विद्यमान पुद्गलोंका जो ग्रहण होता है, यह अमुक दिशासे होता है कि विभिन्न दिशाओंसे होता है ? और दूसरा सबकी ग्रहण दिशा एक समान होती है या न्यूनाधिक होती है ! अब इन प्रश्नोंका उत्तर यह है कि आहार्य पुद्गलोंके लिए निर्व्याघातपन हो तो आहार ग्रहण छः दिशाओंसे होता है / व्याघात अर्थात् रोकनेवाला, निर्व्याघात अर्थात् नहीं रोकनेवाला / अब यहाँ ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है कि हवा अथवा अवकाशी आहारको कोई रोकनेवाला है क्या ! इसका उत्तर है हाँ, -तो किस प्रकार रोकते हैं ! हमारे चौदहराज स्वरूप अनंत विश्वका आकार कटिपर हाथ देकर दोनों पैरोंको चौड़ा करके सीधा खड़े किसी पुरुषाकार जैसा लगता है। पैरसे सिर तक चारों ओरसे चौदहराज प्रमाण है, लेकिन चौड़ाईमें अनेक परिवर्तन है। इस चौदहराजको 'लोक' शब्दसे पहचाना जाता है / इसकी चारों ओर परिवृत्ताकारमें लोकसे भी अनंतगुना अलोक रहा है। इसी अलोकके. आगे तो लोक एक मात्र बिन्दु-बूंदके समान है। इस लोकमें त्रस (जीवोंका एक प्रकार ), स्थावर इत्यादि हरेक जातिके जीव हैं, संक्षिप्तमें समी प्रकारके (छः प्रकारके) ;य हैं। लेकिन अलोकमें कोई पुद्गलद्रव्य नहीं है, वहाँ सिर्फ जड़ आकाश-अवकाश-रिक्तता है। अब चौदहराजलोकके निष्कूट भागमें अर्थात् अंतिम छोर पर विदिशामें तीक्ष्णवालाग्र जितनी जगहमें कोई सुक्ष्म एकेन्द्रिय (सिर्फ शरीरधारी) जीव मिसालके तौरपर अग्निकोणमें उपस्थित होता है तब उसे तीन ही दिशाओंसे आहार ग्रहण होता है / क्योंकि पूर्व, दक्षिण तथा अंधोमें अलोक है। लेकिन अलोकमें आहार पुद्गल होते ही नहीं हैं, इसलिए वह दिशा बंध है। शेष पश्चिम, उत्तर तथा उर्ध्वदिशामेंसे आहार ग्रहण होता है, क्योंकि वहाँ लोक है। (इसके लिए देखिए चित्र नं. 72) 657. पुरुषाकारकी उपमाको सर्वदेशीय नहीं समझना चाहिए। क्योंकि इससे लोक चिपटा हो जायेगा लेकिन लोक वैसा नहीं है / 658. ये छः द्रव्य जीव, अजीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गल और काल समझें / 659. पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर वायु पर्याप्ता अथवा अपर्याप्ता कोई भी लें। 660. उत्तर, दक्षिण दिशा होने पर भी ऊर्ध्व अधो दिशाकी कल्पना भी हो सकते हैं। * इस वस्तु सचमुच चित्रसे भी ज्ञानी गुरुगमसे प्रत्यक्षमें बहुत सरलतासे समझाते हैं।

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