Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 728
________________ 332 م س ه م م م م م ه ه * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 1 योग अर्थात् व्यापार कर्म क्रिया / अप्राप्त इष्ट चीजका लाभ / कर्मके अंतर्गत कौशल्य / / मन, वचन और काय योग्य प्रवर्तक द्रव्य / मन, वचन, कायाका परिस्पंदन कर्ता / वीर्य, उत्साह, सामर्थ्य पराक्रमादि / ___ आत्माका अध्यवसाय विशेष / मोक्षके साथ संबंध बँधा देनेवाले / चित्तवृत्ति निरोध / मानसिक स्थिरता। मानसिक बंध / मानसिक व्यापार। मोक्ष प्रापक व्यापार / इस प्रकार अनेक अर्थोंमें 'योग' शब्दका प्रयोग हुआ है। लेकिन यहाँ तो खास करके नं. 1, 4, 5 और 6 के अर्थ ही विशेष रूपसे अभिप्रेत है / इस प्रकार ऊपर भावार्थ अथवा शब्दार्थ बतानेके बाद अब उसकी पूर्ण परिभाषा विभिन्न स्थलों पर कहनेके बाद मी अत्यंत जरूरी बननेसे यहाँ दी जाती हैं। परिभाषाएँ 1. गमनागमनकी जो क्रिया है वह, अथवा गमनागमनकी क्रियामें जो उपयोगी बनता है उसका नाम है योग / 2. अथवा चलना, बैठना आदि हररोजकी क्रिया जीव जिनकी सहायतासे करता है उसका नाम योग है। 3. वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न जीवका परिणाम विशेष / 4. आत्माका पुद्गलके आलंबनयुक्त व्यापार / 5. आत्मामें वीर्य-शक्ति-ताकृतका स्पंदन / इस योगको प्रथम दो प्रकारमें बाँटते हैं (1) द्रव्य और (2) भाव। द्रव्ययोग अर्थात् मन, वचन और कायाके योग प्रवर्तक जो द्रव्य है वे / अथवा तीनोंको परिस्पंदन करानेवाला मन, वचन तथा कायाका जो बाह्य व्यापार है वह / और भावयोग अर्थात्

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