Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 730
________________ * श्री बृहतूसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . 3. काययोग-शरीरकी हलन-चलनादि क्रियाओंका जो व्यापार है वह / अब . तीनों योगकी समझ अधिक रूपसे प्राप्त हो इसके लिए इसके प्रकार संक्षिप्त अर्थाके साथ बताते हैं। _ चार प्रकारका मनोयोग-सत्य, असत्य, मिश्र और असत्यमृषा (अथवा व्यवहार)। 1. सत्को सत्रूपमें और असत्को असत्रूपमें दिखलाना ही सत्य मनोयोग है। 2. सत्को असत् और असत्को सत् रूपमें दिखलाना ही असत् मनोयोग है / 3. सत् वस्तुको सदसत् रूपसे अर्थात् कुछ अंशमें सत् और कुछ अंशमें असत् अथवा कभीकभी सत्में सत् और सत्में असत् रूपसे सोचना ही मिश्र मनोयोग है। 4. जिसमें सत्-असत् जैसी विचारणाका कोई स्थान ही न हो ऐसी सर्व सामान्य विचारणाको असत्यमृषा. अथवा व्यवहार मनोयोग कहा जाता है। चौथे योगमें मिसालके तौर पर देखें तो-अरे! ओ भाई, तू यहाँ आ, तू जायेगा क्या ? तू जरूर जाना ! इस प्रकार प्रश्न, आज्ञा (हुकम ) अथवा संकेतवाचक भावोंका चितवन जिसमें होता है वह। चार प्रकारका वचनयोग-इस वचनयोगको भी मनोयोगके चार प्रकारोंके अनुसार ही समझना। उनमें पूर्वमें चिंतनके रूपमें बात की है तो उसे यहाँ बोलनेके रूपमें घटा लेना। जैसे कि-सत्को सत् रूपसे और असत्को असत् के रूपसे बोलना / ' सात प्रकारका काययोग-१. औदारिक, 2. औदारिक मिश्र, 3-4. वैक्रिय, वैकिय मिश्र, 5-6. आहारक-आहारक मिश्र और 7 तैजैस-कार्मणः / . एक शरीरके साथ अन्य शरीरका व्यापार चलता है तब मिश्रता विद्यमान होती है। यह कब-कब होती है ? उसे ग्रन्थान्तरसे जान लेना / ये तीनों योग शुभाशुभ कर्मके बंधमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं / इनके ऊपर ही सुख-दुःख सद्गति-दुर्गति यावत् मुक्ति-मोक्षका आधार रहता है। इसलिए अगर सुख-शांति-सद्गति और मुक्तिकी ओर आगे बढ़ना हो तो प्रस्तुत तीनों योगोंको शुभ मार्गमें प्रवर्तमान (प्रबल) करनेके लिए सतत जागृतशील बनें जिसके कारण नया कर्मबंधन रुकेगा और पुराना प्रायः नष्ट होता जायेगा। इससे पुण्य बल बढ़ेगा। संवर (संयम-मनोनिग्रह) तथा निर्जराका उद्गम होगा और अंतमें इष्ट लक्ष्य पर पहुंचेंगे। यदि तीनोंका अशुभ मार्गमें प्रचलन करेंगे तो चिंता, दुःख, वेदना, व्याधि, अशांति 648. यह भेद अपेक्षासे 'कार्मणयोग'से भी पहचाना जाता है /

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