________________ * ज्ञान द्वारका विवेचन * ज्ञानको ‘स्वर व्यवसायि' रूप पहचाना गया है। जो स्व और परको जाननेमें समर्थ है ऐसे ही ज्ञानको प्रमाणरूप ठहराया है। ऐसा ही ज्ञान प्रवृत्ति-निवृत्तिमें उपयोगी बनता है / प्रश्न-आज (वर्तमानमें) कोई अनंतज्ञानप्रकाशी अथवा केवली या सर्वज्ञ है कि नहीं ? उत्तर- नहीं, इसी भरतक्षेत्रमें आजसे करीवन् 2427 साल पहले भगवान महावीरदेवकी पट्ट-परंपरामें जंबूस्वामी नामके एक महामुनि हो गये / वे ही अंतिम केवली या सर्वज्ञ थे। इसके बाद इस कलियुगकी विषम ऐसी अशुभ परिस्थितियाँ बढ़ती ही गयी कि तथाप्रकारकी अति उच्च पवित्रता-निर्मलताकी प्राप्तिके अभावसे ज्ञानावरणीय कर्मका पूर्ण रूपसे क्षय ( नष्ट ) करनेकी योग्यता ही नहीं रही / प्रश्न-यह ज्ञानप्रकाश जब तक प्रकट नहीं होता है तब तक जीवोंमें कौन-सा ज्ञान होता है ! उत्तर-प्रत्येक आत्मामें केवलज्ञानका अनंत प्रकाश पहलेसे ही सत्ताके रूप में तिरोभूत होकर उपस्थित रहता ही है / और हमने पहले ही बता दिया है कि कर्मरूपी परदोंके कारण वह प्रकाश प्रच्छन्न रहता है / यह अनंतप्रकाश भले ही प्रकट न हो, लेकिन न्यून-तरतम प्रकाश हरेक जीवोंमें जरूर होता ही है / हरेक जीवको लेकर सोचें तो आत्मा पर मोटे-पतले अनेक प्रकारके आवरणके परदे गिरे पड़े मिलते हैं। यह परदा जितना बारीक (पतला), होता है तो प्रकाश उतना तीव्र ( अधिक ), और परदा ज्यों-ज्यों मोटा होता जाता है, त्यों-त्यों प्रकाश कम होता जाता है अर्थात् अंधकार बढता जाता है। इस प्रकार जीवमें ज्ञानकी क्षमताकी अनेक कक्षाएँ होती हैं / पुनः इन अनंत वर्गोंके दो प्रकार पड़ते हैं-(१) प्रत्यक्ष और (2) परोक्ष / फिरसे उन दो प्रकारके ज्ञानके असंख्य वर्ग बनते हैं / इनमें अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये तीनों प्रत्यक्ष ज्ञानके प्रकार हैं / यद्यपि इतना विशेष रूपमें समझें कि यहाँ अवधि और मनःपर्यव आंशिक रूपमें प्रत्यक्ष भी है, जब कि केवल संपूर्णतः साक्षात् आत्मप्रत्यक्ष है / इस लिए ही इसी ज्ञानको प्रमाणरूप माना गया है। और मति तथा 607. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानम् / न्याया० स्वार्थव्यवसायात्मिकं ज्ञानम् / चिरं० * स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् / रत्न सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् / प्र० मी० टी०