Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 715
________________ * ज्ञान द्वार-श्रुतज्ञान . •श्रुतज्ञानके अनेक प्रकार हैं। लेकिन उन सभीको वर्गीकृत करके चौदह या बीस भेदोंमें समाविष्ट किया गया है। इस परसे अवांतर (मध्यवर्ती-अंतर्गत) प्रकार कैसे कैसे विचित्र (अद्भुत) हो सकते हैं इसकी कल्पना स्वयं कर लेना। श्रुतज्ञानके व्यापक विचार यदि मंद-तीव्र बुद्धिवालोंको मिले तो उनकी विविध कक्षा और स्थानका ज्ञान पुष्ट होता है, इसलिए इनके प्रकार तथा अर्थ ग्रन्थान्तरसे जान ले / फिर भी यहाँ पर शुरुके ( प्रारंभके ) श्रुतज्ञानके अक्षर, और अनक्षर नामके दो जरूरी भेदोंका अर्थ समझाकर बाकीके प्रकारोंके सिर्फ नाम बताए जायेंगे। 1. अक्षरश्रुत-इसके तीन प्रकार हैं। 1. संज्ञाक्षर 2. व्यंजनाक्षर और 3. लब्ध्यक्षर / संज्ञा शब्दसे दुनियाकी हरेक लिपियाँ अथवा किसी भी लिपिके अक्षररूप आकार समझें / ये हरेक आकार उस हरेक वर्णकी संज्ञाका संकेत करते हैं, जिससे हमें बोध मिलता है / इस लिए ये आकार श्रुतके साधनरूप होनेसे संज्ञाक्षर श्रुत कहा जाता है। अक्षर तथा पदार्थके बीच वाच्यवाचक संबंध है। शब्द वाचक है। इसलिए उसका ज्ञान मतिज्ञान है और उसके निमित्त प्राप्त वाच्यका ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाता है। 2. व्यंजनाक्षर-अ से ह तकके अथवा जिस-जिस भाषामें जो-जो वर्ण हैं, वे सभी मुख द्वारा उच्चारित होनेसे व्यंजनाक्षर कहलाते हैं। 3. 'लैब्ध्यक्षर-हमें अक्षरका ज्ञान जो मिलता है, वही लब्ध्यक्षर है / इस प्रकार शब्द सुननेके साथ ही जिस-जिस अर्थकी प्रतीति होती है उस हरेकके अर्थानुरूप अक्षर-ज्ञानकी प्राप्ति ही लब्ध्यक्षर है। इसमें दूसरों के उपदेशकी जरूरत नहीं होती है। . दूसरे प्रकारसे संक्षेपमें कहे तो-लिखे जाते अक्षर वह है संज्ञाक्षर / बोले जाते अक्षर वह है व्यंजनाक्षर और मनमें सोचे जाते या आत्माके बोधस्वरूप मनमें उत्पन्न अव्यक्त अक्षर रचना ही लब्ध्यक्षर है। 2. अनक्षरश्रुत-श्वासोच्छ्वासकी क्रिया, थूकना, खाँसना, छींकना, चुटकी-ताली बजाना, सीटी बजाना इत्यादि / आवाजयुक्त चेष्टाएँ तथा दूसरे मतानुसार नीरव लेकिन 623. श्रुतके प्रत्येक अक्षर तथा उसके संयोग के बारेमें यदि सोचें तो अनुनासिक, अननुनासिक, हुस्व, दीर्घ, प्लुत तथा उदात्तादि भेदोंसे इनके अनंत भेद होते हैं। 624. अगर तत्त्वदृष्टिसे सोचें तो 'शब्द' सुनकर उसे हेयरूप हो तो हेयरूपमें अथवा उपादेयरूप हो तो उपादेयरूपमें अर्थग्रहण करना अक्षरश्रुत है। ... - 625. इसका एक अर्थ-जिसका नाश न हो वैसी क्षायोपशमिक शक्ति' भी है।

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