Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 707
________________ * शान द्वार-मतिक्षान * जोड़नेवाली इन्द्रियादि हैं जिनके द्वारा पदार्थका अवबोध शक्य बनता है। अतः जिसका मन और इन्द्रियाँ निर्बल होता है उसे तो अस्पष्ट और अधूरा ख्याल ही आयेगा। विषयके साथ मन और इन्द्रियोंका सम्बन्ध होते ही मतिज्ञान हो जाता है और यह बात निश्चित रूपमें समझ लेना कि जिसका जहाँ भी मतिज्ञान हुआ कि तुरंत ही उसका वाचक शब्द सामने आ जानेसे उस विषयका अथवा 'कुछ है ऐसा अक्षरानुसार वह श्रुतज्ञान भी उपस्थित हो ही जाता है / इस प्रकार मति और श्रुत ये दोनों अन्योन्य अर्थात् पारस्परिक संबंधवाले ज्ञान हैं। यहाँ शास्त्रका एक सुवर्ण वाक्य है कि-' जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं' अर्थात् जहाँ-जहाँ मतिज्ञान है वहाँ-वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ-जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ-वहाँ मतिज्ञान है / यह वाक्य यहाँ पर कितना सुसंगत लगता है। क्योंकि जिस-जिस विषयका मतिज्ञान पूर्ण होता है, उस हरेकके वर्णात्मक शब्दोंकी उत्पत्ति हो ही जाती है। और यह शब्दज्ञान है वही श्रुतज्ञान है। साथ साथ उसी श्रुतमें फिरसे मति अपना कार्य अगर जारी ( शुरु ) रखती है, तो उसमेंसे फिरसे अनेक विकल्पयुक्त मतिज्ञान मिलता जाता है। इतना ही नहीं, उस हरेक विकल्प पूर्ण होते ही पुनः अनेक श्रुतज्ञान भी प्रकट होते जाते हैं / इसे स्पष्ट शब्दोंमें कहे तो मति वह श्रुतका कारण है और श्रुत यह कार्य है। चार अनंतानुबन्धी कषाय तथा दर्शन मोहनीयत्रिक मिलकर 'दर्शन सप्तक' कर्मका उपशम और क्षयोपशम होनेसे यह मतिज्ञान जीवमें अवग्रहादिकके प्रकाररूप अपायात्मकनिश्चयात्मक वोधरूपमें प्रकट होता है। - कोई भी पदार्थके मतिज्ञानमें, ज्ञाता स्वरूप उसकी आत्माको इन्द्रिय या मन द्वारा जब कोई विषय अथवा कोई एक पदार्थका निकट या दूरवर्ती संबंध होता है तब उत्तरोत्तर अवग्रह (रुकावट-बाधा), ईहा ( इच्छा-उद्यम ), अपाय ( नाश-हानि-खतरा -विपत्ति) और धारणा नामकी चार प्रक्रिया असाधारण गतिसे पसार हो जाती है तब विषय अथवा पदार्थका ज्ञान या बोध पैदा होता है। इन्हीं चार क्रियाओंके नाम हैंअवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा / इनमें अवग्रहके दो प्रकार हैं'-"'व्यंजनअवग्रह और अर्थअवग्रह / अब हम इन सबको संक्षिप्तमें समझ लें / 611-612. मन तथा चक्षु अप्राप्यकारी होनेसे उनका व्यंजनावग्रह होता ही नहीं है, अगर होता भी तो अग्निको देखते ही आँखें जल जाती। इस लिए इसका सीधा (सरल) अर्थावग्रह ही होता है। .

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