Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 703
________________ * शान द्वारका विवेचन . हम अच्छी तरह जानते है कि अचेतन अथवा निर्जीव पदार्थ अपना या निर्जीव -सजीव वस्तुओंका बोध न तो करता है और न तो करवाता है / क्योंकि उसमें आत्माका अथवा चैतन्यका अस्तित्व है ही नहीं / और जहाँ चैतन्य-आत्मा नहीं है, वहाँ ज्ञान भी नहीं है। ज्ञान तो आत्माका अपना स्वाभाविक गुण है / यह गुण भी अविनाभावी है। इस गुणका न तो आदि भी है, और न तो अंत भी। अगर आत्माका आदि-अंत होता तो उसका भी आदि-अंत संभवित बनता ही, लेकिन उसका आद्यन्त ( आदि-अंत ) नहीं है / ज्ञान आत्माका सहभावी गुण होनेके कारण ही नैयायिकोंकी प्रसिद्ध यत्र-यत्र धूमः तत्र-तत्र वह्निः व्याप्ति पैदा हुई है। इस प्रकार जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्निका अस्तित्व है ही, इस न्यायसे जहाँ- जहाँ ज्ञान है, वहाँ-वहाँ आत्माका अस्तित्वं अवश्य होगा ही / लेकिन यहाँ एक बात विशेष रूपसे समझनी है कि-जहाँ-जहाँ अग्नि वहाँ-वहाँ 'धूम-धुआँ ' ऐसी व्याप्ति कभी होती नहीं है। लेकिन जहाँ-जहाँ आत्मा, वहाँ-वहाँ ज्ञान ऐसी व्याप्ति यहाँ पर जरूर होती है ही। इस प्रकार एकके बिना दूसरा कभी भी हो ही नहीं सकता है, ऐसा निश्चित हुआ। छोटे-से छोटा अति सूक्ष्म निगोदके जीवसे लेकर पृथ्वी-जल-वनस्पति तथा इससे भी बड़े से बड़े महाकाय हाथी तकके हरेक सजीव देहोंमें (शरीरोंमें) ज्ञानमात्रका अस्तित्व निश्चित हुआ है। लेकिन इसमें फ़र्क सिर्फ इतना है कि किसीमें इसकी मात्रा न्यून ( कम ) तो किसीमें अधिक होती है। इस प्रकार न्यूनाधिकके अनंत प्रकार बनते हैं। इन्हीं सब कारणोंसे जीवका लक्षण हुआ-चेतनालक्षणो जीवः। अतः सबसे अल्पशरीरी तथा एकदम अविकसित 'निगोद' नामसे . पहचाने जाते जीवमें भी एक अक्षरके अनंतवें भाग जितना ज्ञान होता तो है ही। उससे ही 'यह जीव है ' ऐसा विधान करके पहचाना जा सकता है। और अगर ऐसा निकृष्ट आत्यन्तिक कोटिका भी चैतन्य मी न मानें तो जीव और अजीवमें कोई भेद रहता ही नहीं है। प्रश्न-ज्ञान तो आत्माका अपना गुण है / फिर उसमें न्यूनाधिकरूप भेद किस लिए ! उत्तर-वास्तवमें ज्ञानका एक ही रूप है। उसमें कोई भेद ( अंतर ) नहीं है। लेकिन यह कब ! जब कि ज्ञान पूर्ण मात्रामें पैदा हुआ हो तव / लेकिन उसे अपूर्ण .. 605. एक के बिना दूसरा जो न हो सके वह / 606. इतनेसे अल्पज्ञानको भी कोई कर्मपुद्गल अपने वशमें नहीं कर सका है / जिस प्रकार क्लोरोफॉर्म अथवा उसकी सूई ( इन्जेक्शन ) से दर्दी (मरीज़) को बेहोश कर दिया जाता है तब उसमें कुछ भी होश नहीं होता / किसी जडकी तरह शून्यता दिख पडती है, फिर भी उसमें अव्यवत चैतन्य नहीं है ऐसा हम नहीं कह सकेंगे। उस प्रकार यहाँ भी समझना।

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