Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 698
________________ * 302. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जाता है / संपूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त (विस्तृत) होनेकी योग्यतावाले अथवा व्याप्त बने हुए पुद्गलस्कन्ध अनंत है, जिन सबको अचित्त महास्कंधसे पहचाना जाता है / यहाँ यह प्रयत्न जीवद्रव्यका नहीं लेकिन अजीवद्रव्यका है। 11 - दिहि- [द्रष्टि] विश्वमें पदार्थ दो जातिके हैं-जड और चेतन / ये पदार्थ अथवा उनके स्वरूपके प्रति सबकी समान श्रद्धा हो अथवा बन सके ऐसा बनता नहीं है। अगर किसीको कोई पदार्थके प्रति सत्-सच्ची श्रद्धा हो तो कोई दूसरेको उसी पदार्थके प्रति असत् कोटिका भाव भी पैदा हो सकता है। तो कुछेक ऐसे भी जीव हो सकते हैं कि जिसमें उस पदार्थके प्रति न तो सत्का भाव मिलेगा और न तो असत् का, लेकिन सत्-असत् अर्थात् सदसत् द्रष्टिका मिश्रण मिलेगा। यद्यपि जीवोंकी समझके प्रकार यों तो हजार हैं, लेकिन उन सबको तीन वर्गोंमें समाविष्ट किया है। ___आखिर ऐसा बनता है क्यों ? तो जीवोंकी ज्ञान शक्ति अथवा समझ शक्तिकी विभिन्न कक्षाओंके कारण ऐसा बनता है। इन विभिन्न कक्षाओंके सृजनमें निमित्त कौन ? तो इसका उत्तर है-हमारे अनेक शुभाशुभ कर्म / - उपर्युक्त तीन कक्षा भेदको शास्त्रीय शब्द देकर विशेष प्रकारसे समझाते हैं। सबसे पहले यहाँ 'द्रष्टि ' शब्द एक प्रकारकी मान्यताके अर्थमें समझना है / जीवको अनादिकालसे मिथ्याद्रष्टि प्राप्त हुई है इसलिए मिथ्या, सम्यग् और मिश्र इस क्रमसे विवेचन अब करते हैं। 1. मिथ्यादृष्टि - कोई पदार्थ जिस स्वरूपमें होता है उसका उसी स्वरूपमें ही . स्वीकार करना चाहिये वो सत्य समझ है, लेकिन मिथ्या दृष्टिका उदय होता है तब कोई शराबी जिस प्रकार अपनी माताको पत्नी अथवा पत्नीको माता समझ बैठता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टिवाला धर्मको अधर्म, अधर्मको धर्म, सत्को असत् , असत्को सत्, हेयको उपादेय और उपादेयको हेय स्वरूप स्वीकारता है। यह दृष्टि आत्माको आत्माका ज्ञान होने देती नहीं है और परस्पर विमुख रखती है। ऐसी दृष्टि अनादिकालसे हरेक जीवमें रहती है जो जीवकी विवेकदृष्टिका विनाश तथा आत्माका नितान्त अहित भी करती है। यह दृष्टि मिथ्यात्व मोहनीय नामके एक प्रकारके कर्मोदयसे प्राप्त होती है। परंतु सत् प्रयत्नों अथवा साधनोंसे उसका अंत लाकर

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