________________ * समुद्घात तथा अजीव समुद्घातका विवेचन * *301 . यहाँ इस क्रियाकी सहायतासे उदीरणाकरण करना असंभवित होनेसे 'अपवर्तना' नामक करण द्वारा पूर्वोक्त तीन कर्मोकी दीर्घस्थितिका विनाश करके अपने योग्य स्थितिवाले बनते हैं। जिस प्रकार कोई गीला (भीगा) कपड़ा यों ही पड़ा. रहता है तो उसके पानीको सूखनेमें कई घण्टे बीत जाते हैं, लेकिन यदि उस गीले कपडेको ठीक तरहसे चौड़ा करके रखें तो उसमेंसे पानी जल्दी सूख जायेगा। ठीक इस प्रकार ही केवली समुद्घातमें मी आत्मप्रदेशोंको सारे लोकमें विस्तृत कर देनेसे दीर्घकर्मीका जल्दीसे क्षय हो सकता है। सातोंका प्रकीर्णक अधिकार - केवली समुद्घात आठ समयका और शेष छः अन्तर्मुहूर्तकालमानके होते हैं / इनमेंसे 1, 3 और 7 ये तीनोंमें पूर्वकर्मका विनाश और नये कर्मग्रहणका अभाव मिलता है जरूर, लेकिन शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण होता है। जब कि दूसरेमें नये कर्म पुद्गलोंका ग्रहण अधिक और पुरानेका क्षय (नाश) अल्प मात्रामें और 4, 5, 6 में पूर्वोपार्जितका विनाश तथा नया कर्मग्रहण होता है। 1, 2, 3 समुद्घात अनाभोगिक है इस लिए वह ऐच्छिक स्वरूप बनता नहीं है लेकिन अतिवेदनासे आत्मामें एकाएक आवेग आ जाता है और स्वाभाविक हो जाता है। और बाकीके चार आभोगिक है इस लिए सोच-विचारकर बुद्धिपूर्वक जान-बुझकर ग्रहण किया जाता है / अनेक जन्माश्रयी जीव इनमें से आहारक और केवली ( अथवा जिन ) ये दो समुद्घातोंको 'छोडकर शेष पाँचोंका उपयोग अनंत बार करते हैं। इसके बाद आहारक अधिकसे अधिक चार और केवली समुद्घात भवचक्रमें एक ही बार होता है। ., शुरुके तीन समुद्घात हरेक वेदनाकषाय अथवा अवसानके प्रसंग पर होते ही है ऐसा- नियम नहीं है। इस लिए हरेक जीवोंके लिए वे अनिवार्य बनते हैं ऐसा नहीं है। ___अचित्तमहास्कन्धरूप-अजीवसमुद्घातः अब हम यहाँ ‘अजीव समुद्घातः ' की परिभाषा इस प्रकार करते हैं कि-अनंत परमाणुओंसे बना हुआ अनंत प्रदेशी कोई स्कंध तथाप्रकारके विस्रसा (क्षीणता-अशक्तता) फलस्वरूप (अथवा स्वाभाविक रूपसे) केवली समुद्घातमें दंडाकार तथा आलमारी आकारमें जिस प्रकारसे बताया गया है उस प्रकारसे ही चार समयमें संपूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त होकर फिरसे बाकीके चार समयमें उन सभी अवस्थाओंको समेटकर मूल अवस्थाचान् अथवा अंगुलके असंख्यात भागरूप बन जाता है, उसे 'अजीव समुद्घात' कहा