________________ * तिबल-तीन बलकी व्याख्या . .245. बलकी शक्ति से जीव जब मनन, चिंतन या विचार करे तब उसे 'मनोयोग' वाला कहा जाता है। इस तरह उच्चार करनेकी शक्ति या लब्धि वह वचनबल / और उच्चार करना या बोलनेका व्यापार करना उसे 'वचनयोग' कहा जाता है। उस तरह हिलना, चलना, खाना, पीना आदि कार्यजन्य व्यापारोंकी शक्ति उसे कायवल कहा, लेकिन उसका व्यापार चले तब 'काययोग' कहा जाता है। बल शक्ति है और योग शक्तिका व्यापार है, अर्थात् बल कारणरूप और योग कार्यरूप है। बल हो वहाँ योग हो ही ऐसी व्याप्ति नहीं है, लेकिन योग हो वहाँ बल अवश्य हो यह व्याप्ति घट सकती है। बल हो फिर भी अन्य कारणों से अवरोध खडे हों तो बल व्याप्त नहीं हो सकता। ___आत्मामें अनंत वीर्य-शक्ति या सामर्थ्य भरी है। यह शक्ति सामर्थ्य वीर्योतराय नामके ( अंतराय नामका घातीकर्मका भेद ) अशुभ कर्मके उदयसे दवा हुआ है। इस कर्मका जितना जितना क्षयोपशम होता जाए उतने उतने अंशमें आत्माकी सामर्थ्य प्रकट होती जाए। और उसका सर्वथा विनाश होने पर अर्थात् आत्मप्रदेशोंसे अलग हो जाए तब आत्माकी अनंत शक्ति प्रकट हो जाती है। फिर ऐसी आत्माएँ केवली अथवा सिद्ध कहलाती हैं और फिर उन्हें अन्य पौद्गलिक शक्ति-सहायकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। . परंतु जो संसारमें अभी हैं ऐसी आत्माओंकी सामर्थ्य कर्मसत्ता द्वारा न्यूनाधिकरूपमें दबी हुई है, ऐसी आत्माएँ कर्मसे पराधीन होनेसे निर्बल हैं, पंगु हैं और निर्बल मनके मनुष्यको चलनेकी शक्ति होने पर भी, चलनेके लिए लकडी आदि आधार या सहारेकी जरूरत रहती है। इस तरह आत्माने अमुक कोटि तक सिद्धि प्राप्त न की हो तव तक अपनी शक्ति प्रकट करनेके लिए उसे मन, वचन, कायाके पुद्गलोंका आलंबन लेना पड़ता है। उसके आधारके बिना वह किसी व्यापार या शक्तिका प्रवर्तन नहीं कर सकती, ऐसा सामान्य सिद्धांत है / संसारी जीवोंके सर्व व्यापार पुद्गलोंके आलंबनसे ही हो सकते हैं / हम जो विचार करते हैं वे यों ही नहीं कर सकते। हम जो बोलते हैं वह मी यों ही नहीं बोल सकते। हमारी हिलने चलनेकी या बैठने उठनेकी सारी क्रियाएँ भी आत्मा स्वयं नहीं कर सकती / लेकिन उन सबके पीछे आत्मा उनके लायक पुद्गल परमाणुओंके स्कंधों-समूहोंके ग्रहणकी एक क्रिया करती है.। ग्रहण किए गए उन पुद्गलोंके वल या सहारे द्वारा तीनों बलोंकी क्रियाओंका योग-व्यापार प्रवर्तन हो सकता