________________ * समुद्घात कषायद्वारका विवेचन. .297 . इन्कार करती है। इस लिए दूसरोंकी हिंसा करके, कष्ट अथवा दुःख देकर पेट भरना नहीं चाहिए / और एक प्रकारसे बोलूं तो सजीव ऐसे पेड़का स्पर्श भी करनेकी आपको जरूरत ही नहीं है। क्योंकि जरा (तनिक-थोड़ा) धरती पर तो देखिये ! खाने लायक सैंकडो सुंदर जामुन कैसे बिखरे पडे है। उन्हें खाकर हम अपनी भूख मिटा सकेंगे ! बिना वजह सजीव ऐसे पेडका छेदन-भेदन करके जीवहिंसा करनेका पाप क्यो मोल लेना चाहिए ? इसके अतिरिक्त शास्त्रमें छः चोरोंका दूसरा द्रष्टांत भी आता है। . ८-इंदिय [इन्द्रिय ] इस द्वारका वर्णन 340 वी गाथाके विवेचनके प्रसंग पर सविस्तार कहा गया है। इस लिए अब यहाँ पुनरुक्तिकी जरूरत नहीं है। - 9-10 - दुसमुग्धाय [ द्वि-समुद्धात] नौवाँ और दसवाँ ये दोनों द्वार समुद्घातके ही है / नौवाँ द्वार जीव समुद्घात का और दसवाँ अजीव समुद्घातका है। इसमें सबसे पहले जीव समुद्घातकी व्याख्या करते है। समुद्घात शब्दका अर्थ ऐसा है कि सम् अर्थात् एक साथ और घात अर्थात् नाश / इस प्रकार अर्थ बना कि-आत्मा जिस क्रियाके द्वारा एक साथ बहुतसे कर्मोंका क्षय करती है, उस क्रियाको समुद्घात कहा जाता है। .. यह बात कुछ ऐसी है कि जब बँधे हुए कर्म उदित होते है तब जीव उन्हें क्रमशः भुगतता है ही। लेकिन क्रमशः भुगतनेका यह कार्य अपनी कालमर्यादा पूर्ण होने तक पूरा हो जाता है, लेकिन कभी-कभी ऐसी परिस्थितियोंका निर्माण होता है कि भुगतनेका 'कर्म जो अवशेष (बाकी) हो उनमें कुछेक कोकी नियत कालमर्यादाकी अपेक्षाको तोड़कर कुछेक कर्माको अल्प समयमें ही भुगत लेना पड़ता है। और उस स्थितिका निर्माण करनेके लिए जीव आगामी कुछ कर्मोंकी उदीरणाकरण द्वारा उदीरणा करता है अर्थात् आगामी काल पर अथवा अधिक कालमें भुगतने योग्य कर्मोंको उदयावलिका अर्थात् वर्तमान समयमें उदयप्राप्त भुगतता कर्मों के साथ प्रबल आत्म-प्रयत्नसे शीघ्र भुगतकर आत्मप्रदेशसे अलग कर देता है। ऐसा महाप्रयत्न स्वाभाविक रूपसे अथवा आत्म प्रयत्न द्वारा सात प्रसंग पर होता है। और इस प्रकार समुद्घातके सात प्रकार बनते हैं। 1. वेदना, 2. कषाय, 3. मरण, 4. वैक्रिय, 5. तेजस, 6. आहारक और 7. केवली / वृ. सं.-३८