________________ * पांच शरीरोंके विवेचन * समय तक अविरहरूप आत्माके साथ हरेक जीवमें एकरूप होकर रहता है। अपने अपने शरीरसे व्याप्त होकर वह रह सकता है / इतना ही नहीं, यह शरीर जीवके साथ साथ जन्मजन्मान्तर रहता भी है। अगर यह न होता तो जनमके साथ ही जीव जो आहार ग्रहण करता है, उसका पाचन नहीं होता और शरीरका गठन भी नहीं होता। इस शरीरके कार्य कौन-कौनसे हैं ? उन्हें देखिये - इस शरीरके कारण ही हमारे शरीरमें उष्णता (गरमी, ऊष्मा) रहती है। दूसरे शब्दोंमें देखें तो हमारे शरीरमें जो गरमी होती है वह मुख्यतः इसके प्रभावसे ही होती है। आयुर्वेदमें 'जठराग्नि' के रूपमें जो पहचाना जाता है, वह इसी शरीरका ही अग्नि है। शरीरमें आहारादिकको पचानेके लिए यह गरमी ही शरीरको मदद करती है। यह शरीर निग्रह तथा अनुग्रह भी करता है। अर्थात् तपश्चर्या आदि शुभ प्रवृत्तियोंके द्वारा तैजस लब्धि या शीत लब्धिकी प्राप्ति हुई हो तो जीव तैजस लब्धिके प्रभावसे अपने शरीरके बाहर तैजसगरमी निकाल सकता है अथवा जो बुखार आता है। वह तैनस शरीर जठरके स्थानमें अधिक मात्रामें रहता है, जिसकी गरमी समग्र शरीरमें फैल जानेसे शरीर गरम गरम हो जाता है, इसे हम बुखार कहते हैं / वे तेजोलेश्या द्वारा सर्वत्र गरमी फैलाकर अनुग्रह बुद्धिपूर्वक हिमसे होनेवाले भयंकर नुकसानको रोक सकते हैं अथवा विद्वेष बुद्धि जागने पर (तैजस समुद्घातसे) शरीर बाहर निकाले गये तैजस ( अति उष्ण ) पुद्गल स्कंधोंसे सामनेवालेको भस्म कर डालते हैं। यह तैजस शरीर किसी भी चीजको भस्मीभूत करनेके लिए समर्थ होता है। . इतना ही नहीं, यह लब्धि जिसमें होती है, उसमें इससे विपरीत शीत लब्धि भी साथ साथ ही होती है। अतः अनुग्रह या उपकारक बुद्धिसे प्रज्वलित किसी चीजको बुझाते हैं अथवा जलनेवालोंको शांत करनेके लिए शीत परमाणुओंके किरणोंको छोड़कर सामनेवालोंको शांत करते हैं। अगर अपना शरीर जला हुआ बताना चाहते हैं अथवा तेजोमय बताना चाहते हैं, तब वैसा उपयोग भी कर सकते है, तथा बर्फसे भी अधिक शीत बनाना हों तब वैसा भी कर सकते हैं। 574. इसी तैजस लब्धिके प्रभावसे ही ऋषिगण शाप देकर भस्मीभूत करते हैं / इस प्रकार शाप तथा अनुग्रह (कृपा ) और उष्ण तथा शीतलेश्या में तेजस शरीर कारणभूत है / इस लिए ही तत्त्वार्थराजवार्तिकमें तैजस शरीरके निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक ऐसे दो भेद बताये हैं। एक भीतर रहकर तथा दूसरा बाहर नीकलकर कार्य करता है /