________________ * कषायद्वारका विस्तृत वर्णन .. - मान–इस कषायका उदय प्रवर्तमान होता है तब मानी स्वभावके कारण दूसरोंकी अथवा दूसरोंके कार्यकी इर्षा और अपनी महत्ता, श्रेष्ठता या उत्कर्ष बतानेकी इच्छा हरदम जागृत रहा करती है। और इसकी ताकत जब बढती है तब यह वाणीबरताव (व्यवहार, आचरण) के द्वारा भी व्यक्त होता है / इन्हीं कारणोंसे ऐसी व्यक्ति अभिमानी, गर्वित (गर्वीला), अकड़, अहंकारी उन्मत्त ( मतवाला, पागल, सनकी ), उद्धत, स्वच्छन्दी आदि विशेषणोंके योग्य बन जाती है / ऐसी मानदशा उत्पन्न करनेवाले कर्मको मान कषायकर्म कहा जाता है / - माया-इस कषायकर्मकी उत्पत्तिके साथ ही जीव दूसरोंको छलनेका प्रयत्न करेगा ही / माया नामक. यह कषाय कुटिलता, वक्रता, छल, कपट तथा सच्चा जुठा, दूसरोंको छलनेकी अथवा फँसानेकी वृत्ति इत्यादि भाव हमारे मनमें उत्पन्न करता है / लोगोमें ऐसी व्यक्तिको ‘मायावी' शब्दसे संबोधन किया जाता है / माया नामक कषायकर्मके उदयके कारण ही जीव इस प्रकार व्यवहार करता है / लोभ-चेतन-अचेतन पदार्थोके संग्रहकी अथवा उससे संचय-वृद्धिकी प्रवृत्ति, दूसरे पदार्थों की लालसा और तृष्णा, ममत्वभाव, किसीका हड़प कर लेनेकी बुद्धि, " आ जा-फंसा जा, घर जा-भूल जा" का व्यवहार, अति प्रारंभिक प्रवृत्तियाँ यह सब करानेवाला लोभ कषाय नामक कर्म ही है। अपेक्षासे चारों कषायोंमें लोभ ही मुख्य कर्ताहर्ता कषाय है / क्योंकि लोभ नामक यह कषाय ही प्रेम, विनय और मैत्री तीनोंको खत्म कर डालता है / इसीलिए उसे 'पापका बाप' के रूपमें पहचाना जाता है / सर्व दोषोंकी खान यही है / इस लिए इसे सभी अनर्थोंका मूल कहा गया है / चारों कषायोंको उद्देशकर आगममें कहा है कि_____ कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो।। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सध्वविणासणो // . [दशवकालिक] क्रोध प्रेमका सर्वथा नाश करता है। मानसे विनय (नम्रता) का, मायासे मित्रताका ( अथवा सरलताका) और लोभसे सर्वका अर्थात् प्रेम, विनय, मित्रता सभीका विनाश होता है। इसलिए शास्त्र कहते हैं कि कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं / बमे चतारि दोसाई, इच्छंतो हियमप्पणो // .. आत्माका हित चाहनेवाला मनुष्य पापवर्धक ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार दोषोंका वमन कर देता है, जिसके कारण आत्मा निर्मळ बनती है।