________________ * 276 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * उसके प्रदेशोंसे असंख्यगुने प्रदेश वैक्रिय शरीरमें, उससे असंख्यगुने प्रदेश आहारक शरीरके पुद्गल स्कंधोंमें, आहारककी संख्यासे अनंतगुने प्रदेश तैजसमें और तैजससे अनंतेगुने प्रदेश कार्मण शरीरमें होते हैं। ___ यहाँ एक बात अचरजभरी यह है कि उत्तरोत्तर शरीरका आरंभक द्रव्य परिमाण पूर्व पूर्व शरीरोंसे अधिक है, फिर भी शरीरकी सूक्ष्मता उत्तरोत्तर बढती जाती है, इसका कारण परमाणुओंके नतीजेकी विचित्रता ही है। . दूसरी बात यह भी समझना जरूरी है कि एक परमाणु वह स्कंध (द्रव्य ) नहीं है, लेकिन दो परमाणु इकट्ठे होनेके बाद ही उन दोनोंको 'स्कंध से पहचाना जाता है। इस प्रकार दो से लेकर अंतिम असंख्य तथा अनंत परमाणुओंके अनंतानंत स्कंध विश्वमें होते हैं / उन हरेक शरीरके योग्य अनंत वर्गणाएँ मी है तो कोई भी एक वर्गणामें अनंत स्कंध भी हो सकते हैं। तथा एक-एक स्कंधमें अनंत परमाणु भी होते हैं / / - 3. स्वामिकृत भेद-पहला औदारिक शरार संमूच्छिम, गर्भज ऐसे सभी तिर्यच और सभी मनुष्योंमें होता है। दूसरा वैक्रिय देवों तथा नारकके जीवोंमें तथा कुछ-कुछ लब्धि प्राप्त वायुकायके (बादर पर्याप्ता) जीव तथा संज्ञि पंचेन्द्रिय-तिर्यच-मनुष्योंमें भी होता है / आहारकशरीर वह तो कोई विशिष्ट लब्धिवंत आहारक लब्धिधारी चौदहपूर्वधरोंको ही प्राप्त होता है। तैजस और कार्मण शरीरको सभी संसारी जीव धारण करते हैं। अतः यह शरीर चारों गति के समी जीवोंको होते ही हैं। ये दोनों शरीर अनादिकालसे जीवके साथ ही है। और जीव जिस-जिस गतिमें जाता है वहाँ ये साथ-साथ ही होते हैं / अर्थात् जब तक जीवका मोक्ष नहीं होता है, तब तक एक पलके लिए भी इन्हीं शरीरोंका विरह सहना पड़ता नहीं है। ये सभी आत्मप्रदेश और कार्मणशरीरके सभी प्रदेश क्षीरनीरकी तरह परस्पर मिलजुलकर एक रहते हैं। इसी कारणसे कोई भी जीव (शरीर पर्याप्तिके बाद) तीन शरीरोंसे कम शरीरवाला नहीं माना जाता है। औदारिक शरीरी जीव कौन कौनसे हैं ? ऐसा तर्क मनमें उठता है तब हमारी स्थूल दृष्टि सजीव मनुष्य-पशु-पक्षीगण तक जाकर ही रूक जायेगी। लेकिन दृष्टिको विशाल बनाइए और सोचिए तो तुरंत समझमें आयेगा कि पाताल, पृथ्वी तथा स्वर्गआकाशमें चलते-फिरते-उड़ते करोड़ों प्रकारके जंतु, पृथ्वी, जल, अमि, वायु, वनस्पति ये समी जीव औदारिक शरीरी है / मानव जातिके उपयोगमें आती समी भोगोपभोगकी 577. इस अनंत संख्या भी अनंत प्रकार बनते हैं। पूर्वसे परका अनन्त अनन्तगुण समझना /