Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 658
________________ * 262 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * उन्होंने कायमी स्थान ले लिया / आज दोनों प्रकारकी संख्या भरपूर हस्तप्रतियाँ उप-- लब्ध होती हैं यह उसका सबूत है / बारहवीं सदीमें जन्मे श्री चन्द्रमुनीश्वरने देखा कि “विद्यार्थियोंने तो मूलसंग्र-. हणीको बहुत विस्तृत कर दी है, और इसी कारणसे कंठस्थ करनेमें श्रम भी अधिक पड़ता है, साथ ही कुछ अर्थहीन दीर्घता दीखती है, इसलिए उसका पुनरुद्धार करना . अर्थात् संक्षिप्त बनानी चाहिए” अतः उन्होंने क्या किया कि प्रथम लगभग 400, या 500 गाथामानवाली जो संग्रहणियाँ थीं उनमेंसे, साथ ही उस वक्तकी विद्यमान दो टीकाओंमें जो अर्थ था उसे सोच-विचार कर, उसमेंसे तारतम्य निकालकर, तथा शब्दोंकी भरमारसे अर्थहीन गाथा विस्तार था अर्थात् जो अर्थ दो गाथाओंसे कहा जा . सके उसे उससे अधिक गाथाओंसे व्यक्त किया गया हो उसे संक्षिप्त कर डालनेका निश्चय किया। साथ ही सामान्य बाबतोंको छोड़कर, साथमें कुछ नवीन हकीकतोंको जोडा, इन सारे प्रयत्नोंके अंतमें गंभीरार्थक शब्दों और भाषा रचनाके कौशल्य द्वारा 271 गाथा प्रमाणरूप इस श्री चन्द्रीया संग्रहणीकी रचना जन्मी / तात्पर्य यह कि लगभग 400, 500 गाथाओंवाली कृतियोंके हिसाबसे इसमें 150, 200. गाथाओंकी भारी कमी होने पाई। शंका-यदि आपको संक्षिप्तका ही प्रयोजन था तो, मूलसंग्रहणी जो स्वयं संक्षिप्त ही थी, उससे स्वोद्देश पार पड़ जाता, तो फिर यह प्रयत्न क्यों किया ? समाधान-इसका जवाब टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजी जो प्रस्तुत संग्रहणीके टीकाकार हैं और संग्रहणीकार महर्षिके शिष्य हैं, वे 271 वी गाथा-टीकामें खुलासा करते हैं कि-"गुरुश्रीने स्वकृत संग्रहणीमें जितना अर्थ संग्रह किया है उतना संग्रह मूलसंग्रहणीमें नहीं ही हैं, संक्षिप्तरूपमें समान है लेकिन 'थोडे शब्द और संग्रहणीकी प्रतियाँ जैन भंडारों से उपलब्ध होती हैं। दूसरी दृष्टिसे देखें तो ऐसी अराजकता एक अति महत्त्वपूर्ण सूचन कर देती है कि इस ग्रन्थका अध्ययन-अध्यापन जैनसंघमें कितनी हद तक रुचिकर बना होगा ? आजके ज्ञानभंडारोंमें प्रायः संग्रहणीकी सचित्र या अचित्र प्रतियाँ कम-ज्यादा प्रमाणमें जो प्राप्त होती हैं वे उसके व्यापक प्रचारके कारण हैं। 568. 'किञ्चित्तदुभयवृत्तिगतस्य' 'श्री चन्द्रीया टीकाकार (गा० 271) के उल्लेखसे उस समय दो टीकाएँ थीं / एक तो हरिभद्रसूरिजीकी और दूसरी क्या लेवें ? क्या 1939 में रची गई शीलभद्रीया वृत्ति हो सकती है ? 569. एक ही अर्थके लिए शब्द क्रियापद, विशेषण आदिका विशेषतः उपयोग किया जाए तो गाथामान बढ जाए। इसी अर्थको सूत्ररचनाके नियमानुसार जरूरी शब्दोंसे संक्षेपमें प्रस्तुत किया जाए तो अर्थ लगभग वही रहने पर भी गाथामान कम किया मा सके।

Loading...

Page Navigation
1 ... 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756