Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 654
________________ *258 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * - ये पैसों संज्ञाएँ सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीवोंके होती हैं और चारों गतिके जीवमात्रमें होती हैं। _चारों गति आश्रयी मौलिक चार (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) संज्ञाओंके स्वामीकी संख्याका स्थूल विचार करें तो, नरकगतिमें मैथुन संज्ञावाले जीव अल्प, तियेचमें परिग्रह संज्ञावाले अल्प, मनुष्योंमें भय संज्ञावाले अल्प और देवोंमें आहार संज्ञावाले अल्प हैं / किस संज्ञाका कहाँ प्राधान्य ! इसका भी स्थूल विचार करें तो, देवोंमें लोभ संज्ञाका प्राधान्य, मनुष्योंमें मान दशाका, तियेचोंमें मायाका और नारकोंमें क्रोध कषायका प्राधान्य है। वर्तमानमें परिग्रह संज्ञाका प्रावल्य अधिक दीखता है। और इसके बल पर अन्य संज्ञाओंका प्रावल्य बढता है। चारों संज्ञाएँ संसारवर्धक हैं / इनसे अनेक अनिष्ट, दुःख, क्लेश और अशांतिकी आगे जलती हैं। इन चारों आगोंको बुझानी हों और संसारका नाश करना हो तो, उसके प्रतिपक्षी स्वरूप दान, शील, तप और भाव इन चारों धर्मका नितान्त सेवन करना चाहिए। दानधर्मके सेवनसे परिग्रह संज्ञाका नाश, शीलसे मैथुनवासना संज्ञाका, तपसे आहार संज्ञाका और भावसे मनकी चंचलताकी कमी होती है। इस तरह चारों भावनाएँ अनादिकालसे उत्पन्न हुई बीमारीको दूर करनेका रामबाण उपाय 558. क्या एकेन्द्रिय जीवोंमें दस संज्ञाएँ घट सकती हैं ? 1. वृक्षोंका जलाहरण 'आहार संज्ञा' को सूचित करता है / 2. लज्जावन्ती आदि वनस्पतिके स्पर्श करने पर भयसे संकुचती है वह ' भय संशा'। 3. स्त्रीका आलिंगन या उसका श्रृंगारिक वचनोंसे कुरबक आदि वृक्षका उर्वर होना / तथा श्रृंगारसज्ज स्त्रीको देखकर कुएँका पृथ्वीकायिक पारा हर्षावेशमें आकर उछले वह 'मैथुन संज्ञा' / 4. लताएँ वृक्षके आसपास आवृत्त होती हैं वह 'परिग्रह संज्ञा'। 5. कोकनद नामका रक्तकमलका कंद, कोई उसके नजदीक जाए तब अप्रसन्नतासे हुंकार करे वह 'क्रोध संज्ञा'। 6. सोना सिंदिके लिए उपयोगमें आती रुदन्ती नामकी लता जो रस वर्षा करती है, वह ऐसा जाहिर करती है कि मैं जीती जागती इस सृष्टि पर बैठी हूँ, फिर भी यह जगत् क्यों मेरा उपयोग करके दरिद्रता दूर नहीं करता, यह 'मानसंज्ञा'। 7. बेलें -लताएँ अपने ही फलोंको पत्रादिकसे ढंककर छिपा देती हैं, यही 'माया संज्ञा' / 8. बिल्वपलाशादि वृक्ष अपनी जड़ें पृथ्वीमें जिस स्थान पर निधान हो उसके पर ही बिछाते हैं यह 'लोभ संज्ञा'। 9. लताएँ फैलती फैलती स्वयं वृक्ष या दीवारका आश्रय पा लेती हैं और ऊपर चढने लगती हैं यह 'ओघ संज्ञा' है। 10. रात्रि पडने पर कमलादि पुष्प बंद हो जाते हैं, सकुच जाते हैं, यह 'लोक संज्ञा'। यहाँ स्थूल 10 संज्ञाएँ कहीं लेकिन क्षुद्रजंतु, पक्षी, पशु, और यावत् मनुष्यका भी शिकार करती हिंसक वनस्पतियाँ भी इस सृष्टि पर विद्यमान हैं। अलग अलग संगीतके नादसे प्रसन्न होती अनेक प्रकारके आकारों, विचित्रताओं, तरह तरहकी खासियतों और चमत्कारोंके स्वभावोंवाली हजारों वनस्पतियाँ हैं / इन वनस्पतियों का भी एक महा विज्ञान है। इनके अभ्यासके लिए अनेक जिंदगियाँ पूरी नहीं पडतीं।

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