________________ * श्वासोच्छ्वास और आयुष्यका स्वरुप * * 253 * . कोई ऐसा मानता हो कि मनुष्यादि जो श्वास ग्रहण करते हैं उसमें मात्र नासिका साधन, और आयुःका सहकार यही कारण है, तो वह बात सर्वथा बराबर नहीं है। इस प्राणमें मुख्य हिस्सा पुद्गलोंका ही है। लेकिन अल्पज्ञ उसे प्रत्यक्षं न देख सकनेके कारण अन्यथा वोलें तो उनकी बात यथार्थ नहीं हो जाती / इस श्वासोच्छ्वाससे यह जीवित है या मृत ? इसकी परीक्षा भी आयुष्यके अंतिम क्षणमें की जाती है। वह जल्दी चले तो आयुष्यके दलियेका जल्दी क्षय माना जाता है और मनुष्यकी मृत्यु नजदीक लाता है / ___सामान्यतः जिनका शरीर स्वस्थ और जिनका संसार शांत और सुखी, उनका श्वासोच्छवास व्यापार स्थिर, दीर्घ और निराबाध होता है। जैसे कि देव। वे अत्यन्त स्वस्थ और सुखी हैं। तो उनमें ( सबसे छोटा ) देव 96 मिनटके अंतर पर एक बार श्वास लेता है। __ और जिसका शरीर अस्वस्थ और जिसका संसार अशांत और दुःखी हो उसका श्वास चंचल, गतिशील और कष्टप्रद होता है। जैसे कि नरकके जीव / उनकी श्वास क्रिया प्रतिक्षण अतिशीघ्र चलती होती है। - तात्पर्य यह कि सामान्यतः सुखी जीवोंको श्वासकी अनुकूलता और दुःखी जीवोंको प्रतिकूलता रहती है। आउ०- आयुष्य / यह दसवाँ प्राण है। इस विषयक विस्तृत विवेचन तो इसी ग्रन्थके पन्ने 175 से 178 तकमें दिया है। जिससे यहाँ तो संक्षेपमें ही दिया जाता है। जिंदगी, जीवन, आयु या आयुष्य ये प्राणके ही पर्याय हैं। आयुष्य एक प्रकारके पुद्गलोंका समूह रूप ही है। इन पुद्गलोंके आधार पर वह किसी भी एक देहमें शरीरधारी बनकर रह सकता है / किसी भी प्राणीके जीवन-दीपको जलता रखनेवाला आयुष्य कर्मके पुद्गल रूप ही है / इसलिए उसे प्राणसे संबोधित किया है / उसके रहनेकी काल मर्यादा, पुद्गलके समूहका प्रमाण यह सब गत जन्मके कर्म पर आधार रखता है। इसलिए उसके द्रव्यायुष्य और कालायुष्य ऐसे दो भेद पड़ते हैं। कालायुष्यके अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय ऐसे दो भेद है। और अनपवर्तनीयके सोपक्रम और निरुपक्रम ऐसे दो भेद हैं। अपवर्तनीय आयुष्य सोपक्रम ही होता है। 546. अतीन्द्रिय ज्ञानका विषयभूत होनेसे / 547. यहाँसे होते भेद-प्रभेद तथा आयुष्य संबंधित अन्य हकीकतोंके लिए देखिए पृष्ठ 175 से /