________________ * 128 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर विशेषार्थ-पहले, पृष्ठ २३-२७में 'समयसे' लेकर पुद्गल परावर्त तकका स्वरूप और कोष्ठक दिया गया है। उसके अनुसार चौरासी लाख वर्षका एक 'पूर्वीग' होता है, उस पूर्वोगके साथ पूर्वाग संख्याको गुना करने से ( 84 लाखको 84. लाखसे ) पूर्वका परिणाम आता है / उसकी वर्ष संख्या सत्तर लाख करोड-छप्पन हजार करोड सालकी [ 7056,00,00,000,000 ] जाने / [ 287 ] अवतरण-गर्भजकी स्थिति बताकर, अब संमूच्छिम तियेच पंचेन्द्रिय स्थलचरादिककी स्थिति बताते हैं / ___ सम्मुच्छपणिदिअथलखयरूरगभुअग जिठिइ कमसो / वाससहस्सा चुलसी, बिसत्तरि तिपण्ण बायाला // 288 // गाथार्थ तिर्यच पंचेन्द्रियमें संमूच्छिम स्थलचर गाय-भैंस आदि चतुष्पद जीवोंकी अनुक्रमसे उत्कृष्ट स्थिति 84 हजार वर्षकी, संमूच्छिम खेचर-हंस-मोर-चिड़ियाँ आदि पक्षियोंकी 72 हजार वर्षकी, संमूच्छिम ( स्थलचर ) उरपरिसर्प सादिककी 53 हजार वर्षकी तथा (स्थलचर ) संमूच्छिम भुजपरिसर्पकी 42 हजार वर्षकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। सबकी जघन्यस्थिति आगे कहेंगे / // 288 // विशेषार्थ–सुगम है / [ 288 ] अवतरण-सर्व तिर्यचोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति कही / अब उन दोनोंकी स्थितिका साम्यत्व होनेसे उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति कहते हैं / एसा पुढवाईणं, भवदिई संपयं तु कायदिई / ' चउएगिदिसु नेया, ओसप्पिणिओ असंखेज्जा // 289 // गाथार्थ-इस तरह पृथ्वी आदि जीवोंकी भवस्थिति कही / अब कायस्थितिको बताते हुए ग्रन्थकार चार एकेन्द्रियों के बारेमें असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीका कायस्थितिकाल-प्रमाण कहते हैं / यहाँ 'ओसप्पिणिओ' यह पद परवाची होनेसे उपलक्षणसे पूर्व वाची उत्सर्पिणीका भी ग्रहण हो जाता है / // 289 // विशेषार्थ-कायस्थिति अर्थात् क्या ? पृथ्व्यादिक किसी भी प्रकारके जीव अपनी अपनी ही पृथ्वी आदि काया ( स्थानमें ) में मरकर, पुनः जन्म लेकर, फिर पुनः मरकर, साथ ही उसी स्थानमें पुनः जन्म लेकर इस प्रकार बार बार उत्पन्न हो तो कितने काल तक. उत्पन्न हो ? उसका नियमन वह / 434. भामा कहनेसे सत्यभामाका ग्रहण होता है इस प्रकार / ..