________________ * 232 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अवतरण-पर्याप्तिकी व्याख्या बताई। अब इन पर्याप्तियोंमेंसे ही प्राणोंकी निष्पत्ति होती है। अर्थात् पर्याप्ति यह प्राणका कारण और प्राण यह कार्य है। अतः इस गाथामें प्राण कितने हैं यह बताकर, किसे कितने प्राण हैं ? यह बताते हैं। पण इंदिअ ति बलूसा, आउ अ दस पाण चउ छ सग अट्ठ / इग दु ति चउरिंदीणं असनि सन्नीण नव दस य // 340 // गाथार्थ- पांच इन्द्रिय, मन, वचन और काय ये तीन बल, उच्छवास और आयुष्य इन दसको प्राण कहते हैं। इनमें एकेन्द्रियके चार, दोइन्द्रियके छः, त्रिइन्द्रियके सात, चउरिन्द्रियके आठ, असंज्ञिपंचेन्द्रियके नौ और संज्ञिपंचेन्द्रियके दस प्राण होते हैं। // 340 // विशेषार्थ-यह गाथा 'प्राणोंको' जणानेवाली है। अतः पहले प्राण अर्थात् क्या ? इसे समझ लें। 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'अण'-प्राणने धातु परसे घन प्रत्यय लगनेसे 'प्राण' शब्दका निर्माण होता है / और 'प्राणिति-जीवति अनेनेति प्राणः '-इस व्युत्पत्तिसे जिसके द्वारा जीवित रहा जाए उसे 'प्राण' कहा जाता ऐसा स्पष्टार्थ निष्पन्न होता है। यह प्राण एक ही प्रकारका है या अनेक प्रकारका ! यह प्राण दो प्रकारका है / 1. द्रव्य (प्राण) और 2. भाव (प्राण ) / द्रव्य प्राण किसे कहा जाए ? 1. जिस संयोगमें यह जीवित है ऐसी प्रतीति हो या व्यवहार किया जाए वह। 2. अथवा जिसका वियोग होने पर यह मर गया' ऐसी प्रतीति या व्यवहार हो। 3. अथवा यह जीव है लेकिन अजीव नहीं है। यह जीव है लेकिन मरा हुआ नहीं है। ऐसी प्रतीति करानेवाले बाह्य लक्षण / 4. जिसके योगसे आत्माका शरीरके साथ सम्बन्ध टिक सके, उसे अथवा उसके योगको प्राण कहा जाए इत्यादि / ऐसे द्रव्य प्राणोंकी संख्या दस है। ये प्राण जीवोंके ही होते हैं। जीवके सिवा अन्य किसीमें नहीं होते। इस कारणसे द्रव्य प्राणोंको जीवके बाह्य लक्षणों के रूपमें भी पहचाने जा सकते हैं। जीवके बाह्य लक्षण कौनसे ! इसके जवाबमें दस प्राण ऐसा कहा जा सकता है। संक्षिप्तमें किसी भी जीवके संयोग संबंधसे रहे द्रव्यप्राण उसी जीवके बापमाण या बाह्यलक्षण हैं। इस कारणसे प्राणको उसके दूसरे पर्यायवाचक शब्दमें 'जीवन' भी कहा जा सकता है।