________________ * ग्रन्थान्तरगत दर्शाते हुए पर्याप्तिका विभिन्न अर्थ * * 233 . भावप्राण-जीवके साथ तादात्म्य विषयक ज्ञानादि जो गुण रहे हैं उन्हें भी प्राण कहे जाते हैं। और उन्हें 'भाव' विशेषण लगाकर 'भावप्राण 'के रूपमें पहचाने जाते हैं। इन भावप्राणोंसे ही जीव जीवके रूपमें पहचाना जाता है लेकिन द्रव्यप्राणसे नहीं। द्रव्यसे जो पहचाना जाता है वह तो औपचारिक है। ये भाव प्राण कौनसे ? ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य ये चार आत्माके भाव प्राण हैं, ये प्राण न्यूनाधिकरूपमें प्राणीमात्रमें होते हैं। ज्ञानादि भावप्राणकी मात्रा अल्पांशमें भी विलकुल अविकसित ऐसे निगोदादिक सूक्ष्मतम जीवोंमें होती है। अगर इतनी मात्रा भी न मानें तो जीव जैसी वस्तुका अस्तित्व ही न हो सके। और उसे अजीव कहनेका समय आ जाए। लेकिन ऐसा कभी बना नहीं है और बननेवाला मी नहीं है / अक्षरके अनंतवें भाग जितनी ज्ञानमात्राका प्रकाश, सत् पुरुषार्थसे बढ़ता बढ़ता अनंत गुना हो जाए अर्थात् अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य प्राप्त हों, तो वैसी आत्माएँ सर्वज्ञ, वीतराग अथवा ( अपेक्षासे) मुक्तात्मा कहलाती हैं। और वास्तवमें तो सच्चे प्राण वे ही हैं। द्रव्यप्राण तो संयोगाधीन हैं, मृत्यु होनेके साथ ही ( एकको छोड़कर शेष ) वियोगी बननेवाले हैं। अलबत्ता मोक्षके लक्ष्यसे 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् / यह शरीर धर्मका साधन रूप होनेसे उसका योग्य रक्षा-पालन जरूरी है, परंतु भाव प्राणको हानि न हो इस तरह ही। क्योंकि द्रव्यप्राणसे भावप्राणकी कीमत असाधारण है। मोक्ष प्राप्तिके समय इन भावप्राणोंका अनंत उद्घाटन ही काम आनेवाला है / द्रव्यप्राण तो सदाके लिए छोड़ देनेका हैं। क्योंकि वे शारीरिक या पौद्गलिक धर्म हैं। और मोक्षमें उनका अभाव होता है। अतः सबको भावप्राणके विकास और रक्षाके लिए सतत सचिंतपनसे प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस पाठ्य प्रथमें इतना इशारा ही पर्याप्त है / इन ज्ञानादि आभ्यन्तर प्राणोंको जीवके आभ्यन्तर लक्षण कहे जा सकते / समग्र संसारी जीवोंको यथायोग्य इन्द्रियादि द्रव्यप्राण और ज्ञानादि भावप्राण अवश्य होते हैं। जबकि सिद्ध जीवोंके मात्र भावप्राण ही होते हैं / 522.. सम्यग् या मिथ्यात्व ऐसी अपेक्षा यहाँ नहीं बताई है / 523. आजकल 'शरीरमाद्यं खलु भोगसाधनम् ' ऐसा नास्तिकताका पोषक ऐसा अनिच्छनीय उलटा प्रचार शुरु हुआ है / वह बहुत दु:खद है / यह आर्यप्रजाको शोभता नहीं / बृ. सं. 30