________________ * तिर्यंच तथा मनुष्यों की लेश्या-स्थिति . . 151 . * विशेषार्थ-तिर्यंचों तथा मनुष्योंको आगामी भवकी लेश्याके परिणमनका अन्तर्मुहूर्त काल व्यतिक्रमसे तथा देव, नारकोंके पूर्वभवकी (अन्यभव अपेक्षासे) अर्थात् स्वभवकी चलती लेश्या, अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर मरणको पाती है। ___ अतः ही यहाँ याद रखना जरूरी है कि कोई भी लेश्या नवीन उत्पन्न हो तव [नर-तिरि-अपेक्षासे ] उसके आद्य-प्रथम स्वरूपमें किसी भी जीवका परभवमें उपपात नहीं होता, साथ ही कोई भी लेश्या जो परिणत हुई चलती हो उसके चरमसमयमें भी [देवनारक-अपेक्षासे] किसी भी जीवका पारभविक उपपात-जन्म नहीं लेता / इसीलिए गत गाथामें ग्रन्थकारने जणाया है कि किसी भी नवीन लेश्या के परिणमनका [ नर-तिरि] अन्तर्मुहूर्त्तकाल व्यतिक्रमसे तथा साथ ही [ देव-नारकके स्वभवकी ] परिणत लेश्याका अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहे तब जीव परलोकको प्राप्त करता है। . तात्पर्य यह हुआ कि-आगामी भवके आद्यसमय पर जीवोंको अन्य लेश्याके परिणाम नहीं होते। (क्योंकि नर-तिरिको स्वभवका अन्तिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहे तब ही भविष्यमें होनेवाली गतिके लायक लेश्याका विपर्यास होता है तथा बादमें उसी लेश्यामें उत्पन्न होता है और देव नारकको स्वभवकी लेश्यामें ही उत्पन्न होना है / ] साथ ही पाश्चात्य भवके चरम समय पर मी उससे अलग लेश्या परिणाम होते नहीं हैं / अतः नियमन यह हुआ कि " जीव जिस लेश्यामें मरें उसी लेश्यामें आगामी भवमें उत्पन्न होता है / इसीलिए कहा जाता है कि देव-नरकके भवमेंसे लेश्या आगामी भवमें रखने आती है तथा तिर्यच-मनुष्यके भवमें लेश्या लेनेके लिए आती है"। ____ 308 वी गाथा बादर पर्याप्त पृथ्व्यादिकको जो चौथी तेजो लेश्या भी कही वह इसी नियमके बल पर ही, अर्थात् भवनपतिसे लेकर ईशानान्त तकके तेजोलेश्यावाले देव मरकर जब बादर पर्याप्त पृथ्वी, अप् तथा प्रत्येक वनस्पतिमें उत्पन्न हो तब एक अंतर्मुहूर्त जितनी तेजोलेश्या सहित उत्पन्न होते होनेसे उतना काल वहाँ तेजो लेश्याका संभव है, अपेक्षासे तेजो सहित चार लेश्याएँ कहीं हैं / [310] अवतरण-अब तिर्यंच तथा मनुष्यकी लेश्याका स्थितिकाल कहते हैं / अंतमुहुत्तठिईओ, तिरिअनराणं हवंति लेसाओ। चरमा नराण पुण नवं-वासूणा पुव्वकोडी वि // 311 // गाथार्थ-पृथ्वींकाय आदि तिर्यचोंकी तथा संमूच्छिम और गर्भज मनुष्यकी यथायोग्य जो लेश्याएँ होती हैं वह जघन्यसे और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त्तकी स्थितिवाली होती है,