________________ * 186 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जीव पुनर्जन्म लेने या अपुनर्जन्म (मोक्ष) अवस्था प्राप्त करने जाए तब उसे दो गति द्वारा जाना पडता है। एक ऋजु और दूसरी वक्रा / .... ऋजुगति तो उस शब्दके अर्थसे ही समझी जाती है। वह सरलगति है / मोक्षमें जानेवाला जीव सर्व कर्मसे मुक्त होनेसे उसकी मृत्यु तथा उत्पत्ति दोनों स्थान सीधी - समश्रेणिमें ही होते हैं, जिससे वह मुक्तात्मा एक ही समय पर स्थूल या सूक्ष्म दोनों प्रकारकी देहका त्याग करके सीधी ही, एक ही समयमें प्राप्य स्थानप्रदेश पर पहुँच जाती है, अतः उसे एक ही समयवाली, इष्ट स्थान पर पहुँचानेवाली ऋजुगति ही होती है। लेकिन संसारी जीव तो देहधारी हैं अतः उन्हें ऋजुके उपरांत वक्रागति भी होती है, अतः वक्राके प्रकार, उसका काल, इस अंतराल गतिमें आहारकी व्यवस्था आदि बाबतें यहाँ कही जाती हैं। वक्रागति नाममें ही वक्र शब्द पड़ा है, अतः उसकी व्याख्या भी मुश्किल है / गतगाथामें कहा वैसे जीवको वक्रागतिमें उत्पन्न होना हो तो उसे स्वकर्मोदय मोड अर्थात् मार्गमें काटकोन करके बढना पडता है / ऐसे मोड या काटकोन ज्यादासे ज्यादा चार तक करनेके प्रसंग बनता हैं। उससे एक भी मोड अधिक नहीं होता, चौथा मोड पूर्ण होने पर स्थूल देहधारी बनने परजन्म धारण कर ही लेता है / इससे यह हुआ कि जिस संसारी जीवको 'एकवका गति' से उत्पन्न होनेका निर्माण हो तो एक मोड लेकर उत्पन्न हो जाए। 'द्विवक्रा' वालेको दो मोड-काटकोन करने पडते, 'त्रिचक्रा' वालेको तीन और 'चतुर्वक्रा' वालेको चार मोड होते हैं। इन वक्राओंमें कितना समय जाए ? तो हरेक वक्रामें एक संख्या बढाकर कहना / अर्थात् एकवक्रामें दो समय, द्विवक्रामें तीन, त्रिवक्रामें चार और चारवक्रामें पांच समय मृत्युसे उत्पन्न होनेके विच होते हैं / दो गतिकी जरूरत है क्या ? हाँ / चेतन और जड कहो, अथवा जीव और पुद्गल कहो, ये पदार्थ गतिशील हैं। ये गतिशील पदार्थ स्वाभाविक रूपमें ही निश्चित नियमपूर्वक ही गति करनेवाले हैं, और उसकी स्वाभाविक गति तो आकाशप्रदेशकी समश्रेणिके अनुसार ही होती है (जिस आकाशप्रदेश श्रेणिको हम तो देख ही नहीं सकते।) अर्थात् दिशाओंकी समानान्तर होती है। अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधो इन छ: में से किसी भी दिशामें समश्रेणिमें होती है / लेकिन दिशासे विदिशामें या विदिशामेंसे दिशामें सीधी सीधी नहीं होती। अतः विश्रेणीगमन नहीं होता। लेकिन