________________ 38. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . मिलाकर 9653 की आवलिकागत नरकावास संख्या प्राप्त होती है / इसलिए 84,00,000 ( 84 लाख ) संख्या में से 9653 की संख्या कम करने से शेष 83,90,347 की संख्या पुष्पावकीर्ण की प्राप्त होती है // 235 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् [235] / // प्रत्येक नरकाश्रयी वृत्त-त्रिकोन-चौकोन नरकावासाओं की संख्या का यंत्र // * सातों की जाति नाम पाँचवीं सातवीं नरक। वृत्त संख्या पहली दूसरी तीसरी चौथी संख्या 1453 875 | 477 1508 2843332 1472 492 | 232 88 20. 03200 तीसरी ,, चौथी ,, सातों नरक की कुल पंक्तिबद्ध संख्या 4433 2695 1485 / 707 265 63 5 9653 अवतरण-इससे पूर्व आवलिक तथा पुष्पावकीर्ण नरकावासों की विभिन्न अवस्था बताने के बाद अब ग्रन्थकार यहाँ पर नरकावासों का प्रमाण कहते हैं तिसहस्सुच्चा सव्वे, संखमसंखिञ्जवित्थडाऽऽयामा / पणयाल लक्ख सीमंतओ अ लक्ख अपइठाणो // 236 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 236 / / विशेषार्थ—सातो नरक पृथ्वी में प्रवर्तित सारे नरकावास [ आवलिकागत और पुष्पावकीर्ण] तीन हज़ार (3000) योजन की ऊँचाईवाले तथा चौड़ाई और लम्बाई में कोई संख्य योजन तो कोई असंख्य योजन ऐसे दोनों प्रकार के हैं। उदाहरण के तौर पर प्रथम नरकातरवर्ती सीमन्त नामक इन्द्रक नरकावास [ ढ़ाई द्वीपप्रमाण ] प्रमाणांगुल से 45 लाख योजन का वृत्ताकार में और सातवी नारकी के मध्य में प्रवर्त्तमान अप्रतिष्ठान नरकावासा भी प्रमाणांगुल से [जंबू द्वीप प्रमाण ] एक लाख योजन का वृत्ताकार में आया हुआ हैं जिसके आसपास महारौरव, महाकाल, रौरव तथा काल-ये चारों असंख्य योजन के बिस्तारवाले नरकावासा आये हुए हैं। इस प्रकार संख्य और असंख्य योजन प्रमाण इन्हीं आवासों का आप समझें। [236]