________________ ' * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . इस तरह ये सजीव चौदह रत्न सदाशाश्वत, हरेक चक्री को प्राप्त होनेवाले, प्रत्येक एक एक हजार यक्षोंसे अधिष्ठित होते हैं / अतः उसके कार्यकी सहायमें उतने सहायक होते हैं / इसीलिए ये रत्न सर्वत्र विजय दिलानेवाले, सर्वत्र महासुख देते हैं परंतु पापयोगसे चक्री दूर खिसक जाए तो देव प्रभारहित ऐसे ये रत्न [ सुभूम का जिस तरह देवसे पकडा हुआ चर्मरत्न छोड देनेसे नाश हुआ था वैसे ] हानिकारक भी बनता है / चक्रवर्ती इन रत्नों को बहुमानपूर्वक संभालते हैं-रक्षा करते हैं- सेवन करते हैं और काम पडने पर यथेष्ट उपयोगमें लेता है / जैर्धन्य से जंबूद्वीप में एक साथ चार चक्री हो सकते इस दृष्टि से उस समय 4414=56 रत्न और उत्कृष्ट काल में महाविदेह के 28 विजयोंमें 28, भरत-ऐश्वत के एक एक इस तरह 30 चक्री वर्तित हों, तब समकाल में 60x14420 रत्न हो सकते हैं / [267 ] ( प्रक्षेपगाथा 64 ) // चक्री के चौदह रत्नोंकी दीर्घता-उत्पत्तिस्थान-उपयोग विषयक यंत्र // उद्भव | उपयोग / रत्ननाम | उद्भव उपयोग रत्ननाम दीघता उदभव रत्ननाम | ਉੱਭ 1. चक्ररत्न | वाम चक्रीकी आकाशमें चलने- | 8. अश्वरत्न 108 | वैताढय | युद्ध में विजयदाता प्रमाण आयुध वाला शत्रु अं० | तलहटी शालामें | विजयकारी 2. छत्ररत्न वृष्टि-वायुसे रक्षा | 9. गजरत्न तत्काल करनेवाला योग्य , | महापराक्रमी युद्धमें विजयदाता 3. दंडरत्न भूमिसमकारक 18. पुरोहित, स्वस्व : पुरोहितका काम करनेवाला शान्तिक कर्मकृत् नगरे 4. खड्गरत्न 320 , पहाडादि भेदक 11. सेनापति , युद्ध संचालक और निष्कूट जीतनेवाला 5. चर्मरत्न हाथ लक्ष्मी | धान्य बोनेमें भडारमें | उपयोगी 12. गृहपति | , , भोज्य सामग्री तैयार करनार 6. काकिणी 4 अं० , मंडल प्रकाशकृत् 13. वार्धकी | , , पुल-गृहादिककृत् 7. मणिरत्न 2 अं० .. दिव्य प्रकाशकृत् 14. स्त्रीरत्न | , / राजगृहमें चक्री के भोग्य चौदह रत्नों का विस्तार-मोटाई मान खास लब्ध न होनेसे यहाँ नहीं दिया है। 396. अधिक वर्णन जंबू० प्रज्ञ० लोकप्रकाशादिकसे जाने /