________________ * चक्रवर्तीको प्राप्त होते नवनिधि * अवतरण- अब चक्री के नवनिधि की हकीकत प्रक्षेपक गाथासे कही जाती है / णेसप्पे पंडुए पिंगलए, सव्वरयणमहापउमे / काले अ महाकाले, माणवगे तह महासंखे // 268 // [ क्षे. गा. 65] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 268 // . विशेषार्थ- चक्रवर्ती के जिस प्रकार चौदह रत्न होते हैं उसी प्रकार नवनिधान भी प्राप्त हुए होते हैं / जिस अवसर पर चक्रवर्ती भरतक्षेत्र का विजय पाते पाते गंगानदी के मुख के पास अर्थात् समुद्र में जहाँ गंगा का संगम होता है, उस स्थान पर आवे, उस वक्त चक्रवर्ती के प्रबल पुण्य से आकर्षित देवाधिष्ठित देव संचालित नवों निधान पातालमार्गसे होकर चक्रवर्ती की राजधानी में आते हैं। ये नवों निधान बडी मंजूषा-पेटी के रूप में होते हैं / वह हरेक मंजूषा आठ योजन ऊँची, नव योजन चौडी और बारह योजन लंबी होती है। प्रत्येक मंजूषा के नीचे रथ के पहिये की तरह आठ आठ चक्र (पहिये ) होते हैं और उनके मुख वैडुर्यमणिसे आच्छादित होते हैं / तथा वे सुवर्णमय, रत्नोंसे भरपूर और चक्र, चन्द्र और सूर्य के लांछनसे युक्त होते हैं। चक्रवर्ती जब 6 खंडों को साध्य करके गंगा के पास विजय पाकर आता है तब गंगा के पास रहे इन निधानों को चक्री अठ्ठम तप के द्वारा आराधता है। उन निधियों के देव शरण में आने के बाद, चक्री की सेवा में सदा हाजिर रहने के वचनो देते हैं / फिर चक्री जब उनका सत्कार करके राजधानी की और मुडता है तब वे निधि पातालमार्ग से परंतु चक्री के पीछे पीछे आते हैं / और राजधानी के समीप आने के बाद वे निधिए राजधानी के बाहर ही रहते हैं; क्योंकि प्रत्येक निधि चक्री की नगरी जितना मानवाला होनेसे नगर में कहाँसे समा सके ? इस तरह चक्री की गज-अश्व-रथपदाति आदि सेना भी नगर के बाहर ही रहती है / नवनिधान के जो जो नैसर्पादि नामो हैं उस उस नामवाले मुख्य नागकुमार देवो उस उस निधान के अधिष्ठायक हैं / वे पत्योपम आयुष्यवाले हैं / यहाँ किन्हीं शास्त्रकारों का ऐसा कथन है कि- इन निधानों में उस उस वस्तु की प्राप्ति को जणानेवाले शाश्वता-दिव्य ' कल्पग्रन्थो' हैं। उनमें अखिल विश्व का सर्व विधि 397. देखिए त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र 'इत्यूचुस्ते वयं गंगामुखमागधवासिनः / आगतास्त्वां महाभाग ! त्वद्भाग्येन वशीकृताः || 398. अधिक जानकारी के लिए जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-स्थानांग-प्रवचनसारोदारादि ग्रन्थ देखें / ब. सं. 12