________________ .78. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जघन्य से तमाम मनुष्यों का अंगुल के असंख्यातवें भाग का देहमान होता है। उत्तरवैक्रिय की रचना संमूच्छिमों के होती ही नहीं है / गर्भज मनुष्य के वह उत्कृष्ट साधिक लाख योजन और जघन्य से अंगुल के असंख्य भाग की होती है / मनुष्यों के भवनो-गृहो, अशाश्वत-अनियमित होनेसे उनकी वक्तव्यता हो नहीं सकती, अतः भवनद्वार का निषेध किया है / इसलिए यहाँ आठ ही द्वारों की प्ररुपणा कही जाएगी / [ 260 ] तीसरा और चौथा उपपात-च्यवनविरह तथा पाँचवाँ, छठा संख्याहार // अवतरण-अब तीसरे और चौथे उपपात और च्यवनविरह द्वार के और पांचवें तथा छठे उपपात तथा च्यवन संख्याद्वार के विषय में कहते हैं / बारस मुहुत्त गम्भे, इयरे चउवीस विग्ह उक्कोसो। जम्ममरणेसु समओ, जहण्णसंखा सुरसमाणा // 261 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् सुगम हैं / // 261 / / / विशेषार्थ-अब तीसरा उपपात-च्यवनविरह अर्थात् गर्भजमनुष्यके उपपातच्यवन ( जन्ममरणाश्रयी) विरहकाल उत्कृष्ट से बारह मुहूर्त का पड़ता है। अर्थात् एक जीव के उपपात (जन्म ) या च्यवन (मरण ) के बाद उक्त अंतर पर दूसरा उत्पन्न हो-जन्म हो अथवा च्यवन हो-मरण हो / इतर-समूच्छिम मनुष्य को उत्कृष्ट से चौबीस मुहूर्त का उपपात तथा च्यवनविरहकाल पड़ता है / दोनों के जघन्य से एक समय का उपपात तथा च्यवनविरहकाल होता है। अब दोनों की उपपात और च्यवन संख्या देवसमान-वह एक, दो यावत् उत्कृष्ट रुप से संख्य-असंख्य होती है / इस तरह छः द्वारों का वर्णन किया / [261 ] मनुष्याधिकार में सातवाँ गतिद्वार // अवतरण-अब सातवाँ ‘गतिद्वार' उस मनुष्यगति में आनेवाले जीवो कौन कौन से होते हैं, यह बताता है / सत्तममहिने रइए. तेऊ-वाऊ असंखनरतिरिए / मुत्तूण सेसजीवा-उप्पज्जंती नरभवंमि // 262 //