________________ * 82 . .. श्री बृहत्त्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अवतरण-अब ये रत्न किस किस स्थान में उत्पन्न होते हैं ? यह कहते है / चउरो आउह-गेहे, भंडारे तिन्नि दुन्नि वेअड्ढे / . एगं रायगिहम्मि य, नियनयरे चेव चत्तारि // 267 // .. [ क्षेपक गाथा 64 ] गाथार्थ-चार रत्न आयुधशाला में, तीन भंडारमें, दो वैताढ्य में, एक राजा के गृहमें और शेष चार अवश्य निजनगर में उत्पन्न होनेवाले होते हैं // 267 / / विशेषार्थ-१. चक्ररत्न-चक्रवर्ती का जन्म उत्तम जाति और गोत्रमें, उत्तम राज-भोग कुलमें ही होता हैं / वो सर्वांग सामुद्रिकशास्त्रों कहे उत्तमोत्तम 108 लक्षणयुक्त होते हैं / महान् देदीप्यमान पुण्य के पुंजरुप होते हैं / चक्रवर्ती योग्यावस्था पाने पर राजगद्दी पर आता है / आनेके बाद यथायोग्य काल पर अपना महान् उदयारंभ होनेका योग्य समय होने पर प्रथम चक्राकार में वर्तित, जगमगाता, महान् , विविध प्रकार के मणि-मोतियों की मालाओं, घंटिकाओं तथा पुष्पमालाओंसे अलंकृत, चक्रीको सदा आधीन, सूर्य जैसे दिव्य तेजसे दिशाओं को प्रकाशमय करनेवाला, हजार देव-यक्षोंसे अधिष्ठित ऐसा चक्ररत्न शस्त्ररुप होनेसे अपने पूर्वजोंकी आयुधशालामें उत्पन्न होता है / सर्व रत्नों में और आयुधों में श्रेष्ठ होनेसे, तथा चक्रवर्ती के प्राथमिक दिग्विजय करानेवाला होनेसे, सबसे प्रथम यह उत्पन्न होता है / सर्वायुधों में सर्वोत्तम प्रभाववाला और दुर्जय, महारिपुओं पर विजय पानेमें सदा ही अमोघ शक्तिवाला यह रत्न, चक्रीसे शत्रओं पर छोडने के बाद सैकडों वर्ष पर भी उसे मारकर ही [ चक्री के स्वगोत्रीय को वर्ण्य ] चक्री के पास आनेवाला होता है / यह रत्न प्रायः आयुधशाला में जब उत्पन्न होता है तब हर्षित ऐसा शाला-रक्षक स्वयं ही प्रथम चक्ररत्न का वंदनादिकसे सत्कार करके स्वनृपति [ जो अभी भावि चक्रीरुप है उन्हें ] को हर्षानंदसे हृष्ट-पुष्ट वह सेवक राजसभा में खबर देता है / भावि चक्री और वर्तमान के महानृपति उस बात को सुनते ही महाआनन्द पाकर सात-आठ कदम चक्ररत्न के सम्मुख चलकर स्तुति-वंदनादिक करके, खबर देनेवाले शालारक्षक को प्रीतिदान में, मुकुट को वयं पहने हुए सर्वाभूषण अर्पण करके तथा आजीविका का .. 390. प्रायः शब्द इसलिए है कि भावि चक्री सुभूम को मारने के लिए दानशाला के अस्थि प्रसंग में जब परशुरामने परशु रक्खा कि तुरंत ही वह परशु महापुण्यशाली सुभूम को कुछ भी न कर सका / उस समय रुष्ट बने सुभूम के हाथ में रहा अस्थि-थाली उसी समय सुभूम के विजय के लिए ही स्वयं चक्ररूप बन गई और उस चक्र से उसने परशुराम को मरण शरण किया।