________________ 46. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * - अंतर बताया है, उतने-उतने अंतर पर नरकावास स्थान भी समझ लेना चाहिए / ] जब अंतिम पृथ्वी माघवती में ऊपर तथा नीचे दोनों स्थानों से साढ़े बावन हज़ार योजन का क्षेत्र छोड़ना पडेगा, क्योंकि वहाँ नरकावासा होते नहीं है; सिर्फ शेष तीन हजार योजन में ही नरकावास आये हुए हैं क्योंकि वहाँ एक ही प्रतर है / वह प्रतर 3000 योजन की ऊँचाई पर मिलता है, क्योंकि वहाँ नरकावासों की ऊँचाई भी उतनी ही होती है। [238] अवतरण-अब उन पृथ्वीवर्ती प्रतरों का अंतर जानने के उपाय बताते हैं। बिसहस्रणा पुढवी, तिसहसगुणिएहिं निअयपयरेहिं / ऊणा रुखूणणिअपयरभाइआ पत्थडंतरयं // 239 // गाथार्थ-अपने (इष्ट नरक के) प्रतर की संख्या से तीन हजार (पीढा प्रमाण) की संख्या को गुनने से जो संख्या मिलती है उसे दो हजार न्यून ऐसे उस-उस पृथ्वीपिंड में से कम करने पर जो संख्या शेष रहती है उसे एकरूप न्यून प्रतर की संख्या से (क्योंकि प्रतर की संख्या से आंतरा एक संख्या न्यून होता है) भागने से पीढे का अंतर मिलता है // 239 // विशेषार्थ-इस गाथा का उपयोग छः पृथ्वी तक ही हो सकेगा क्योंकि सातवीं पृथ्वी पर तो प्रतर एक ही होने के कारण वहाँ अंतर कहाँ से पैदा हो सकेगा ? इसलिए यहाँ पर छः पृथ्वियों के विषय में क्रमशः कहा जायेगा। अतः यहाँ प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के लिए उदाहरण देकर उपाय बताते हैं / __ उदाहरण-रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी का पिंडबाहल्य एक लाख अस्सी हजार योजन है / उस पिंड प्रमाण को ऊपर से तथा नीचे से एक-एक हजार योजन कम करने पर 1 लाख 78 हजार का पिंड शेष रहता है। अब इसी पृथ्वी की प्रतरसंख्या तेरह की है तथा प्रत्येक प्रतर तीन-तीन हजार योजन ऊचे हैं, अतः सबसे पहले केवल तेरह प्रतरों द्वारा रोके गये क्षेत्रप्रमाण को अलग निकालने के लिए तेरह को तीन हजार से (1343000) गुनने पर 39 हजार योजन तो मात्र प्रतरक्षेत्र ही आया है, अब इसे उक्त 1 लाख 78 हजार योजन के पिंड में से कम करने से 1 लाख 39 हजार का पृथ्वीक्षेत्र तेरह प्रतरों के बीच का अंतर लाने के लिए शेष बचता है। ___अब [चार उँगलियों के आँतरे तीन ही होते हैं वैसे तेरह प्रतर के आँतरे बारह होने से 1 लाख 39 हजार योजन के शेष बचे अंतरक्षेत्र के बारह भाग करने ३७२-पाठां-सगा(निय)पयरेहि, तिसहस्सगुणिएहिं /