________________ * 56 . ........ श्री बृहत्सग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * का, तीसरे नरक में 15 दिन का, चौथे में 1 मास का, पाँचवें में 2 मास का,, छठे में 4 मास का तथा सातवें नरक में 6 मास का विरह-अन्तरमान रहता है / अतः अपना-अपना समय-काल पूर्ण होते ही अपनी-अपनी पृथ्वी में अवश्य ही कोई दूसरा जीव उत्पन्न होता है अथवा च्यवता मी है / सिर्फ इतना ही नहीं लेकिन प्रत्येक नरक में जघन्य उपपात-च्यवनविरह एक ही समय का रहता है / इन्हीं नारकों में सातवें नरक को छोड़कर शेष नरकों में प्रायः नारको सतत उत्पन्न होते ही रहते हैं तथा च्यवते ही रहते है / कभी कभी ही पूर्वोक्त विरह-अन्तर पडता है / तथापि " लहुओ दुहावि" इस पद के अनुसार (सातों पृथ्वियों में आये हुए) भी सातों नरक में जघन्य विरहमान ओघ-सामान्य से एक समय का रहता है और उत्कृष्ट से ओघ-सामान्यतः बारह मुहूर्त का रहता है / - इति चतुर्थ-पञ्चम उपपात-च्यवन विरह द्वारम् // [2501] // छट्ठा तथा सातवाँ एक समयगत उपपात-व्यवन संख्याहार // अवतरण-अब छट्ठा 'उपपातसंख्या' तथा सातवाँ 'च्यवनसंख्या' नामक द्वार कहते हैं / संखा पुण सुरसमा मुणेअव्वा // 250 // विशेषार्थ-नरक में उत्पन्न होनेवाले तथा च्यवनेवाले जीवों की एक समय में कितनी संख्या होती है ? तो इस के उत्तर में अनुक्रमसे उपपात-च्यवन संख्या देवों के समान ही जानें / ___ अर्थात् एक ही समय में नारकों नरक में जघन्य से एक-दो-तीन यावत् उत्कृष्ट संख्य, असंख्य तक उत्पन्न हो सकते हैं तथा एक-दो यावत् संख्य-असंख्य तक च्यवी भी सकते हैं / देवों के लिए भी ऐसा ही कहा गया है / [ 2503 ] नरकाधिकार में आठवाँ गतिहार अवतरण-अब कौन-कौन से जीव नरक में जाते हैं, उन्हें इसी आठवें गतिद्वार में बताते हैं। संखाउपजत्तपणिदितिरिनरा जंति नरएसु // 251 // ... विशेषार्थ-संख्याता वर्ष की आयुवाले पर्याप्ता पंचेन्द्रिय तिर्यचो तथा मनुष्यों नरक में उत्पन्न होते हैं / इस से यह स्पष्ट होता है कि असंख्य वर्षायुषी युगलिको ने