________________ सूर्यमण्डलकी संख्या और उसकी व्यवस्था ] गाथा 86-90 [ 219 है, अर्थात् हम उस क्षेत्रकी बाहाके ऊपर पसार होते उन दो मण्डलोंको देख सकते हैं। 64-6 માં મંડળો હરિ ની જીવાકોટિ ઉપર opan. निध....पर. हरिवनी . हरिचर्ष.....क्षेत्र 0000000 1 ... अ . के माहा के जाहा 0 र at: आकृति परिचय—इसमें ६३वा मण्डल निषध पर्यन्त है, जहाँ ६४-६५वा मण्डल है, उस स्थानका ताम हरिवर्षकी जीवाकोटी अर्थात् जीवा और बाहा इन दोनोंके बिचका कोना, और बाहा ब-क जितनी लम्बी है, और वह एक आकाशप्रदेश मोटी है कि ब-क जितनी दीर्घ गिन सकते, अ-ब जितनी बाहाकी औपचारिक चौडाई है कि जिसमें जगती और हरिवर्ष क्षेत्र भी है / विशेषतः चित्रमें मेरुसे पूर्व-पश्चिममें सर्वाभ्यन्तरमण्डल - की जो अबाधा है उससे कुछ अधिक उत्तर-दक्षिणमें समझना / 3. साथ ही श्री समवायांगसूत्रमें 63 मंडल निषध नीलवंतके ऊपर सही, लेकिन दो मंडल 'जगती' ' के ऊपर है ऐसा शब्द प्रयोग किया है। . इस मतसे 64-65 मडल ऊपर जताए हैं। इन दो मंडलोंका जगतीस्थान वास्तविक दृष्टिसे तो स्पष्ट जगती स्थान नहीं है। यदि जगतीस्थान दर्शाना हो तो 63-64-65 इन तीन मंडलोंके लिए वास्तविक है / गणितकी दृष्टिसे उचित मत इन तीन मंडलोंके लिए आ सकता है, विशेषतः इससे भी -- जगती' शब्दकी सार्थकता तो 62-63-64-65 इन चार मंडलोंके कथनमें है जो नीचेके उल्लेखसे स्पष्ट होगा। - संपूर्ण जगती तो बारह योजनकी गिनी जाए। इसमें दृष्ट जगती बिवके चार क्षत्रके 173-174175-176, इन चार योजनकी गिनी जाए क्योंकि मूल भागसे लेकर दोनों बाजू पर जानेसे दोनों बाजूने जगती मेरुकी तरह घटती घटती गोपुच्छाकारकी तरह होती हुई ऊपरितन भागमें चार योजन चौडी रहती है और हमें तो इस मध्यभागकी चार योजन जगती दृष्टिपथमें आती होनेसे 'दृष्टजगती' कहलाती /