________________ 368 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 185-186 एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सर्व जातिके तिथंच तथा सर्व मनुष्योंका उक्त तीनों प्रकारका आहार होता है / अतः वे कदाचित् अचित्त, तो कदाचित् सचित्त, अर्थात् कदाचित् सचित्ताचित्त आहार लेते हैं / परन्तु देव तथा नारक आदि जिस आहारका पुद्गल लेते हैं वह तो हमेशा अचित्त आहार ही होता है / [ 185 / अवतरण-अब जिस-जिस अवस्थामें जो-जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे हरेक समय पर जानकर या अनजानमें लिया जा सकता है क्या ? आभोगाऽणाभोगा, सव्वेसि होई लोमाहारो / निरयाणं अमणुन्नो, परिणमइ सुराण स मणुण्णो // 186 / / ... गाथार्थ-सर्व जीवोंमें लोमाहार आभोग अर्थात् जान-बूझकर और अनाभोग अर्थात् अनजानमें इन दोनों प्रकारसे परिणमता है / इनमें यह आहार नारकीमें अमनोज्ञ-अप्रियपन तथा देवोमें मनोज्ञ-प्रियरूपमें परिणत होता है / // 186 // विशेषार्थ-'आभोग' और 'अनाभोग' इन दो प्रकारसे आहार ग्रहण होता है / आभोग अर्थात् मुझे आहार करना है वैसी इच्छा प्रकट होनेसे जिसे ग्रहण किया जाता है और इससे विपरीत अर्थात् अनिच्छापूर्वक ही सहजभावसे आहार पुद्गलोंका जो ग्रहण होता है वह है अनाभोग / यह सब किस प्रकार होता है ? तो जिस तरह बरसात या शीतकी ऋतुमें बारबार लघुशंका करनेके लिए जाना पड़ता है तथा उसमें अत्यन्त मूत्रादिरूप दिखायी पड़ता पुद्गलरूप जो आहार है, वह है अनाभोगिक / सर्व जीवोंमें अपर्याप्त अवस्थामें अनाभोगरूपमें ही आहार ग्रहण होता है, क्योंकि आहारपर्याप्ति प्रथम है जब कि मनःपर्याप्ति छट्ठी और अन्तिम है। मनःपर्याप्तिकी प्राप्तिके बाद ही 'इच्छा' शक्ति प्रकट होती है और जो पर्याप्ति पर्याप्त अवस्थामें ही मिलती है / अतः अपर्याप्त अवस्थामें ही अनाभोगरूप आहार ग्रहण जो कहा-बताया गया है वह समुचित ही है। लोमाहार किसे प्राप्त होता है ? लोम अर्थात् रोम (रोयें-रोंगटे) द्वारा बनता आहारग्रहण जो आभोग तथा अनाभोग इन दोनों रीतिसे सर्व जीवोंमें होता रहता है / क्योंकि ग्रहण किये जाते आहारसे संवेदनकी अनुभूति कभी कभी होती है तो कभी कभी नहीं भी होती / जिस तरह मर्दन द्वारा हवा और तैलादिकका ग्रहण इच्छापूर्वक होता है, जब कि शीतोष्णादि पुद्गलोंका ग्रहण स्वाभाविक रूपमें अनिच्छासे भी प्राप्त बन सकता है /