________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार * .23. - पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि के उक्त मान में एक योजन का तीसरा भाग, घनवात में एक कोस और तनुवात में सिर्फ एक कोस का तीसरा भाग मिलाने से दूसरी शर्कराप्रभा के अन्तवर्ती घनोदधिका विष्कम्भ 63 योजन, घनवातका 4 / / योजन और तनुवातका 115 योजन ( अर्थात् एक योजन और एक योजन के बारहवें सात भाग) और इन तीनों विस्तार को कुल मिलाने से कुल 12 योजन 23 कोस दूर अलोक रहता है। शर्कराप्रभा में मिलाया हुआ घनोदधि आदि का जो विष्कम्भमान है उसे अनुक्रम से पुनः शर्कराप्रभा के मान में मिलाने से तीसरे नारकवर्ती घनोदध्यादिका नाप आता है / इस प्रकार क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छः गुना करके इसे मिलाने से अथवा उत्तरोत्तर पृथ्वी में एक ही मान मिलाने से उसी पृथ्वीका घनोदध्यादि विष्कम्भमान आता है, जो इस प्रकार है वालुकाप्रभा के घनोदधि का 63 योजन, घनवात का 5 योजन, तनुवातका 155 योजव विष्कम्भ आता है / अतः यहाँ पर कुल 13 योजन 13 कोस दूर अलोक, पंकप्रभा के घनोदधिका 7 योजन, घनवातका 51 योजन, तनुवातका 1 योजन और इस प्रकार कुल मिला कर 14 योजन दूर अलोक यहाँ से शुरु होता है / - पाँचवीं धूमप्रभा का घनोदधि 71 योजन-धनवात 53 योजन, तनुवात 133 योजन, इस प्रकार कुल मिलाकर 14 योजन 23 कोस दूर अलोक आता है / - छठी तमःप्रभा का घनोदधि 73 योजन, घनवात 56 योजन, तनुवात 133 योजन / इन सबको मिलाने से यहाँ से अलोक 15 योजन 11 कोस दूर शुरु होता है। ____ सातवीं तमस्तमःप्रभा का घनोदधि पूर्ण 8 योजन, घनवात 6 योजन और तनुवात 2 योजन कुल मिला कर तीनों का मान 16 योजन बन कर उतना दूर अलोक रहता है। [214-16] अवतरण-अब ग्रन्थकार यह सोचते हैं कि--पूर्व गाथा 212-13 में घनोदधि आदिका जो प्रमाण नाप वर्णित किया है तथा गाथा 215-16 में भी घनोदधि आदिका फिर से जो वर्णन किया है, इस से पाठकों को कुछ भ्रम होगा तो ! यह सोच कर उसी भ्रम का निवारण करने के लिए निम्न गाथा में समझाने का प्रयत्न करते हुए वे लिखते हैं