________________ * 22 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . - विशेषार्थ--प्रत्येक पृथ्वी की चारों ओर वलयाकार में घनोदध्यादि आये हुए हैं। ये मध्यभाग से अर्थात् तलवे के मध्यभाग से गत गाथा में कहे गये मानवाले होते हैं / उसके बाद प्याले की तरह ऊर्ध्वभाग पर जाते-जाते ये क्रमशः प्रदेश ( प्रमाण की ) हानि से हीन-हीनमानवाले बनते बनते अपनी-अपनी पृथ्वी के ऊपरी अंत-भाग पर अति अल्प एवं पतले होकर भी चारों और से वलयाकार में अपनी-अपनी पृथ्वियों को अच्छी तरह . से ढंकते हुए उपस्थित होने के कारण किसी भी दिशा से एक भी पृथ्वी अलोक का स्पर्श करती नहीं है। इस घनोदधि आदि वलयमान की ऊँचाई का स्वरूप अपनी-अपनी पृथ्वी की ऊँचाई के आधार पर सर्वत्र यथायोग्य ( यंत्र द्वारा ) सोंचे / [ 2133 ] अवतरण--इस से पहले जो पिंडप्रमाण (परिमाण, नाप, ) दिखाया गया था, वह अधोभाग से मोटापा का मान बताता था / और अब प्रत्येक पृथ्वी की दोनों ओर के ये पिंड कितने बड़े एवं विस्तार वाले होते हैं ? यह विष्कम्भमान बताते हैं। रयणाए वलयाणं, छधपंचमजोअणं सडूढं // 214 // विक्वंभो घणउदही-घणतणुवायाण होइ जहसंखं / सतिभागगाउअं, गाउअं च तह गाउअतिभागो // 215 // पढममहीवलएसुं, खिवेज एअं कमेण बीआए / दुति चउ पंचच्छगुणं, तइआइसु तंपि खिव कमसो / / 216 // गाथार्थ--विशेषार्थवत् / / / 214-15-16 // विशेषार्थ-रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरि छोर ( अंत ) की समश्रेणि पर चारों ओर से गोलाकार में उपस्थित घनोदधि, घनबात तथा तनुवातवलय के विष्कम्भ ( चौड़ाई ) को अब बताते हैं / प्रथम घनौदधि की चौड़ाई छः योजन, घनवात की साढ़े चार योजन तथा तनुवात की डेढ़ योजन है / इन तीनों को एक साथ मिलाने से ऊपर के भाग से बारह योजन दूर अलोक पड़ता है / इस प्रकार आप ठीक से समझ लीजिए कि घनोदधि, घनवात आदि गोलाकार रूप से पृथ्वी को चारों ओर से घिरे हुए आये हैं / [ 214 ] अब अन्य पृथ्वियों के विष्कम्भ जानने के तरीके बताते हैं /