________________ 374 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 189-191. अयोगी-चौहदवें गुणस्थानकपर स्थित अयोगी केवली जब शैलेषीकरण करते हैं तब उसी अवस्थामें वे अन्तर्मुहूर्त (अत्यल्प समयोंके ) काल तक अनाहारक होते हैं / सिद्धके जीव जो सकल कर्मका क्षय करके मुक्तावस्थाको प्राप्त होते हैं, वे सादिअनन्तकाल तक अनाहारक ही होते हैं / ऊपरि प्रसंगोंको छोड़कर शेष सभी जीव हरेक प्रसंग पर आहारक ही होते हैं / यहाँ अनाहारीपन वह एकान्त सुखका कारण है, जब कि आहारीपन वह दुःखका कारण है / इसलिए मुमुक्षुओंको अनाहारीपदकी प्राप्तिके लिए उद्यमशील बनना चाहिए। [188] अवतरण-अब देवोंकी तथाविध भवप्रत्ययिक सम्पत्तिका वर्णन करते हैं। . केसटिमंसनहरोम-रुहिरवसचम्ममुत्तपुरिसेहिं / रहिआ निम्मलदेहा, सुगंधिनीस्सास गयलेवा / / 189 / / अंतमुहुत्तेणं चिय, पज्जत्तातरुणपुरिससंकासा / / सव्वंगभूसणधरा, अजरा निरुआ समा देवा / / 190 // अणिमिसनयणा, मणक-ज्जसाहणा पुप्फदामअमिलाणा / चउरंगुलेण भूमि, न छिबंति सुरा जिणा बिति / / 191 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 189-191 / / विशेषार्थ-सभी देव अपने पूर्वभवके संचित शुभ कर्मोदयके प्रभावसे हमेशा शारीरिक आकृतिमें अतिशय सुन्दर, शरीर-मस्तक पर केश, हड्डियाँ, मांस, नाखून, रोंयें, रुधिर, चरबी, त्वचा, मूत्र, विष्टा (मल), (स्नायु) इतनी वस्तुओंसे रहित ३४°शरीरवाले होते हैं / ऐसी कलुषित वस्तुसे सर्वथा रहित होनेके कारण वे निर्मल देहधारी-उज्ज्वल शरीरी पुद्गलोंको धारण करनेवाले, कर्पूर-कस्तूरी आदि विशिष्ट सुगन्धी द्रव्योंसे युक्त सुगन्धी श्वासोश्वासवाले, जात्यवन्त सुवर्णके लेप जैसे, रज प्रस्वेद आदि उपलेपरहित होते हैं / वे प्रवालवत् रक्त अधरवाले, चन्द्र समान उज्ज्वल वैक्रियभावी दाँतोंवाले होते हैं / यहाँ वैक्रियभावी विशेषण देनेका कारण यह है कि केश-३४१ नाखूनादिका अस्तित्व औदारिकभावी है, जब कि देवों तो वैक्रियशरीरी ही होनेसे यह वस्तु स्वाभाविक रूपसे तो होती नहीं है, लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो वे उत्तरवैक्रियसमान केश, नाखूनादि सर्व स्वरूप धारण कर 340. अर्थात् मनुष्य जनमके दुःख, त्रास और भयरूप मानी जानेवाली कोई भी चीज उनमें होती नहीं है। 341. उववाइसूत्रमें दन्त, केशादिका आस्तत्व बताया गया है /