________________ 278 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 100-102. यदि यहाँ कोई शंका करे कि अढाईद्वीपके बाद ठेठ देवद्वीपमें पंक्तिविमानारम्भ कहा है तो बिचके असंख्य द्वीप-समुद्र पर क्या कुछ भी नहीं होता ? तो वह बिचका प्रदेश आवलिकागत विमान रहित ही होता है। तत्पश्चात् 2-4-8-16-31 विमान, उन उन द्वीपों में जो असंख्य-असंख्य योजनवाले होनेसे तथा असंख्यमें भी असंख्य भेद होनेसे पूर्वपूर्वसे बृहत्-असंख्य योजन मानवाले होनेसे खुशीसे समा सकते हैं। . द्वितीय प्रतरमें स्वयंभूरमण समुद्रवर्ती एक एक विमान चारों बाजू पर हीन सोचना इस तरह पश्चात् क्रमसे एक एककी हीनता अनुत्तर यावत् सोचें / [100-101] (प्र. गा. सं. 27-28) ___ // उस उस द्वीप-समुद्र में प्रतिष्ठितविमानसंख्यावबोधक यन्त्र // चार-चार राशदीपों प्रथमके चारों दिशावर्ती चारविमानों से प्रत्येक विमान देवद्वीपमें चारों बाजूपर हैं। बादके , दो-दो , नागसमुद्रमें " , चार-चार ,, यक्षद्वीपमें , , आठ-आठ ,, | भूतसमुद्रमें / . , सोलह-सोलह ,, | स्वयंभूरमणद्वीपमें .. , 31-31 , | स्वयंभूरमणसमुद्रमें अवतरण-विमानके गंध-स्पर्शादिक कैसे हों ? यह बताते हैं / अच्चंतसुरहिगंधा, फासे नवणीयमउअसुहफासा / निच्चुज्जोआ रम्मा, सयपहा ते विरायंति // 102 // [प्र. गा. सं. 29] गाथार्थ-ये विमान अत्यन्त सुरभिगंधवाले और स्पर्श करनेसे माखनकी तरह मृदु-सुकोमल, तथा सुखकारी स्पर्शवाले, निरन्तर उद्योत करनेवाले, रमणीय और तथाविध जगत्स्वभावसे स्वयंप्रभा-तेजवाले ( गगनमण्डलमें ) शोभित हैं। // 102 // विशेषार्थ-सुगम है। शेष विमानका अधिक वर्णन ग्रन्थान्तरसे देखे / [102] [प्र. गा. सं. 29J . अवतरण-अब जो देवलोक सौधर्म-ईशानकी तरह युग्म रुपमें रहे हैं वहाँ किन विमानोंमें, किस दिशामें, किसका किस तरह हक रहा है ? इस हकीकतको जणाते हुए प्रथम उत्तर-दक्षिणवर्ती आवलिकागत विमानोंके स्वामित्त्वको जणानेवाली गाथा कहते हैं।