________________ 314 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१४२ शरीर स्व-स्व काल पूर्ण होते ही विस्रसा पुद्गलवत् मुक्ति (विलीन, मृत्यु) पानेके स्वभाववाले होते हैं। इस उत्तरवैक्रिय शरीरकी रचना उत्कृष्टसे एक लाख योजन प्रमाणकी हो सकती है और इस उ. वै. शरीरकी रचनाका ( उसका काल) उत्कृष्टमें उत्कृष्ट काल " देवेसु अद्धमासो उक्कोसविउव्वणाकालो" इस वचनसे आधे मासका है / उस काल पूर्ण होते हुए ही पुनः वह उत्तरवैक्रिय शरीररचना पुनः विस्रसा पुद्गलवत् स्वतः लुप्त ( विलीन ) हो जाती है और तुरन्त ही भवधारणीय वैक्रियशरीर धारण कर लेना पड़ता है। यदि उस काल पूर्व रचित उत्तरवैक्रिय शरीरकी अनावश्यकता दिखायी दे और उसे विलीन करना हो तो उपयोग (बुद्धि) पूर्वक विलीन (लुप्त ) भी कर सकते हैं / इस उत्तरवैक्रिय शरीरको रचना (धारण करना ) यह नवप्रैवेयक तथा सर्वोत्तम ऐसे अनुत्तर विमानवासी देवोंमें होता नहीं है / साथ ही ज्यों अन्य देव जिनेश्वर भगवन्तके कल्याणकादि प्रसंग पर अथवा अन्य गमनागमनादि प्रसंग पर उत्तरवैक्रिय करके मनुष्यलोकमें आते है, वैसे इस देवोंको तथाप्रकारका कल्प ही ऐसा है कि उनको यहाँ आनेका प्रयोजन होता ही नहीं है, परन्तु वहाँ भी शय्या पोढ्या थका नमस्कारादि करनेरूप शुभ भावना करते है, अतः अचिंतनीय शक्ति होने पर भी २४२प्रयोजनाभावसे ' उत्तरवैक्रियशरीर रचना नहीं है। ऐसा शब्द प्रयोग किया है / साथ ही वे वस्त्रालंकाररहित है। जन्मसे ही वे अति सुन्दर, दर्शनीय और दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले है / साथ ही वहाँ प्रवर्तमान चैत्य प्रतिमाओंको शय्यामें रह-रहकर साधुकी तरह भक्तिभावसे ही पूजते है। वहाँ गाननाटकादि कुछ होता ही नहीं है / [142] 292. इससे ही ग्रैवेयक तथा अनुत्तरवासी देव स्वविमानकी शय्यामें रहते हुए द्रव्यानुयोगादि सम्बन्धमें विचारणा-मनन करते किसी न किसी विषयमें जब शंकाग्रस्त बनते है तब वे देव वहाँ रहकर ही मनसे केवली भगवंतसे प्रश्न करते है कि हे भगवन् ! मेरी इस शंकाका समाधान क्या ? इस समय त्रिकालज्ञानी भगवंत कि जो तीनों कालोंके सर्व भावोंको एक ही साथ एक ही समयमें आत्मप्रत्यक्ष देख-जान सकते हैं वे भगवंत घातीकर्मक्षयसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानके परिबलसे देवोंकी उन शंकाओंको युगपत् जाननेके बाद उनका समाधान करनेके लिए द्रव्यमनसे मनोवर्गणा योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करते है / तत्काल निर्मल अवविज्ञानसे उपयोगवन्त बने हुए वे देव, उन भगवन्त द्वारा ग्रहित मनोवर्गगाके पुद्गलद्रव्यको देखकर स्वशंकाके समाधान हेतु सोचे कि केवली भगवन्तने इसी प्रकारके मनोद्रव्यों को ग्रहण करके परिणत किए है, अतः हमारी शंकाओंका समाधान यही होना चाहिए ऐसा वे समझ जाते है /