________________ 342 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 163-165 विवरीअं पंचमगं, सव्वत्थ अलक्षणं भवे छटुं / गब्भयनरतिरिअ छहा, सुरासमा-हुंडया सेसा / / 165 / / गाथार्थ-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज और हुंडक ये जीवोंके संस्थान छः हैं। इन सबमें सबसे अधिक सुलक्षणयुक्त पहला, नाभिसे ऊपर लक्षणयुक्त दूसरा, नाभिसे नीचेका ही लक्षणयुक्त तीसरा, पीठ-उदर-उर आदिको छोड़कर शिर-ग्रीवा-हाथ-पग इत्यादि लक्षणयुक्त हो वह चौथा. उससे विपरीत पाँचवाँ और इन सबसे लक्षणरहित जो है वह है छठा / गर्भज नर-तिर्यचोंको छः संस्थानवाले, देवोंको समचतुरस्र और शेष जीवोंको हुंडक संस्थानवाले समझे। // 163-165 // विशेषार्थ-संतिष्ठन्ते प्राणिनोऽनेन आकार विशेषेणेति संस्थान अर्थात् जिस आकार विशेषसे प्राणी अच्छी तरह रह सकते हैं उसे संस्थान कहते हैं। उन संस्थानोंके छः प्रकार हैं, समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज और हुंडक / 1. समचतुरस्र-जिनके अंग सुलक्षणोपेत हों उन्हें समचतुरस्र संस्थानी कहते हैं अर्थात् पद्मासन पर (तथा पर्यकासनपर) बैठे हुए पुरुषके चारों कोण विभाग समान मानवाले हों यह, अर्थात् दाहिने (दक्षिण) घुटनसे बाँये काँध (कन्धा) तक, बाँये : घुटनसे दाहिने काँध तक, दो पैरोंके बीच (कलाईसे लेकर )से नासिका तक और बाँये घुटनसे दाहिने घुटन तक (ये चारों भाग हरेक ओरसे समान मानवाले-नापवाले होने चाहिए)। ____2. न्यग्रोध-यह वटवृक्षका नाम है, अर्थात् जो शरीर नाभिसे ऊपर सभी ओरसे सुलक्षणयुक्त सुशोभित हो और नीचे वटवृक्षकी तरह लक्षणरहित हो वह न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है। 3. सादि-न्यग्रोधसे विपरीत अर्थात् नाभिके साथ-साथ नीचे अंग अच्छे लक्षणयुक्त और नाभिसे उपरके अंग कुलक्षणयुक्त-कुरूप हो ( शाल्मली वृक्षवत् ) वह / 4. वामन-पीछेकी पीठ-पृष्ट, उदर तथा छाती इन तीनोंको छोड़कर शेष शिर, कण्ठ, हाथ, पैर इत्यादि अंग यथार्थ लक्षणयुक्त हों वह / 5. कुब्ज-वामनसे उल्टा अर्थात् शिर, कण्ठ, हाथ, पग ये सभी लक्षणहीन हों और शेष अवयव लक्षणयुक्त हों वह / 6. हुण्डक-जिसके सभी अंग-अवयव लक्षणरहित हों वह, ये छः ही संस्थान गर्भजमनुष्य तथा तियचोंमें (विभिन्न जीवोंकी अपेक्षासे ) हो सकते हैं /