________________ 360 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 181-182 जितने सागरोपमकी संख्याका आयुष्य होता है उतनी पक्ष संख्यासे उच्छ्वास ग्रहण और उतने ही हजार सालकी संख्या पर आहार ग्रहण होता है / अर्थात् जिन देवोंकी आयु एक सागरोपमकी होती है, उन्हें एक ही पक्ष पर उच्छ्वास ग्रहण तथा एक ही हजार वर्ष पर आहारकी अभिलाषा होती है, उसी तरह दो सागरोपमवालेको दो पक्षपर उच्छ्वास ग्रहण तथा दो हजार साल पर आहारकी अभिलाषा होती है, यावत् अनुत्तरपर तैंतीस सागरोपमकी स्थिति होनेसे तत्रवर्ती देवोंका 33 पक्ष पर उच्छवास ग्रहण तथा 33 हजार वर्ष पर एक बार ही आहारकी अभिलाषा होती है और वे मनोज्ञ आहार पुद्गलोंसे तृप्ति पाते हैं / [ 181] ___ अवतरण-सम्पूर्ण दस हजार और सम्पूर्ण सागरोपमसे लेकर ऊपरि देवोंके लिए कहा गया है / लेकिन दस हजारसे ऊपर तथा सागरोपमसे न्यून आयुष्यवाले देवोंके लिए कुछ भी कहा गया नहीं है, अतः अब वही बात मध्यम आयुषी देवोंके लिए शेष निकायमें घटाते हैं। दसवाससहस्सुवरिं, समयाई जाव सागरं ऊणं / दिवसमुहुत्तपुहुत्ता, आहारुसास सेसाणं // 182 // गाथार्थ-दस हजार सालसे ऊपर तथा सागरोपमसे कुछ न्यून आयुष्यवाले ( अर्थात लाखों, करोडों, अरबों, संख्य या असंख्य यावत् पल्योपमवाले ) देवोंके लिए दिवस ३२५पृथक्त्वपर आहार तथा मुहूर्त पृथक्त्वपर श्वासोश्वास ग्रहण होता है / // 182 // पृथक्त्व-यह संख्यावाचक शब्द पारिभाषिक है, जैन आगमोंके कथनानुसार इससे दो से लेकर नौ तककी संख्याका सूचन होता है / विशेषार्थ- उपरोक्त बताये गये गाथार्थको निम्नानुसार संगत करनेका है, गाथार्थका सीधा अर्थ तो ऊपर गाथार्थमें जो बताया गया है वही होता है; लेकिन उसे अगर उतने ही मानमें स्वीकार किया जाये तो कुछ न्यून सागरोपमवालोंके लिए दिन पृथक्त्वपर आहारमान, तथा मुहूर्त पृथक्त्वपर उच्छ्वासमान और पूर्ण सागरोपमवालोंके लिए एक हजार वर्षपर आहार तथा एक पक्षमें उच्छ्वास, इसके अलावा कुछ न्यून सागरोपम और पूर्ण सागरोपमके बीच दिखायी देती मर्यादा अल्प, फिर भी दोनोंके बीचका मान एकदम इस तरह छलांग लगा दे - इतना बड़ा भेद एकाएक दिखायी पड़े यह सहजरूपसे बुद्धिगम्य कैसे लग सकता है ? 325. यहाँ दस हजार साल ऊपर एक दिन, मास या वर्षादिक आयुष्यवाले देवोंको तुरन्त ही पृथक्त्वपन मिल जाता है ऐसा नहीं है, लेकिन क्रमशः आगे आगे पल्योपमादिक स्थिति पर पहुँचते ही पृथक्त्वपन प्राप्त होता है।