________________ भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीरका जघन्य प्रमाण ] गाथा-१४३ [ 315 . // उर्ध्वदेवलोकमें आयुष्यानुसार देहप्रमाणका यन्त्र // सागरो. हाथ-अगिया. भाग सागरो. हाथ-अगिया. भाग | सागरो. हाथ-अगिया. भाग | د | 7 مہ و سه ر w com . - ww c 0 0 / ہ و سه mro 0 0 0 د 4 | 21 | ہ 11 / 5.... अवतरण- अब उस भवधारणीय तथा उत्तरवैक्रिय शरीरका जघन्य प्रमाण कहते है। साहाविय वेउब्विय, तणू जहन्ना कमेण पारंभे / अंगुलअसंखभागो, अंगुलसंखिज्जभागो य / / 143 / / गाथार्थ-स्वाभाविक तथा ( उत्तर ) वैक्रिय शरीर प्रारम्भकालमें जघन्यसे अनुक्रमसे अंगुलके संख्यातवे भागका तथा अंगुलके असंख्यातवे भागका होता है। // 143 // विशेषार्थ- स्वाभाविक ' कहते भवधारणीय शरीर भवनपत्यादिक देवोंको सहज प्राप्त होता है और वह स्वदेवभवायुष्य तक रहनेवाला है। वे जीव पूर्वभवके चाहे वैसे ( इच्छित ) प्रमाणवाले देहको छोड़कर जब तथाविध कर्म द्वारा, परभवमें यथायोग्य स्थान पर जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ उत्पन्न होनेके साथ ही अपर्याप्तावस्थामें ( उत्पत्तिके प्रथम समय पर ) उसके भवधारणीय शरीरकी अवगाहना अंगुलके असंख्यातवे भागकी होती है, क्योंकि वहाँ वे जीव उत्पत्तिस्थानमें आते ही अपनी आत्माको अत्यन्त सिकुडकर ( अंगुलके असंख्यातवे भागका कर ) कोयलेमें ज्यों अग्निका कण गिरे त्यों यहाँ उत्पत्ति स्थान रूप कोयले में अग्निके कणस्थानिक जीव उत्पन्न होते है और उत्पन्न होते. तुरन्त ही कोयलेमें गिरे अग्निका कणरूप वह जीव प्रारम्भिक