________________ धातकी खण्ड और कालोदधि वर्णन ] गाथा 86-90 [ 209 देवकी राजसभामें पड़े, पड़ते ही क्रोधसे कुपित बना हुआ, किंतु बाण उठाते ही उसके ऊपर चक्रवर्ती उत्पन्न हुए का नाम पढ़कर तुरन्त ही शांत बना हुआ मागधदेव अनेक प्रकारकी भेंटोंके साथ बाण लेकर चक्रवर्तीके समीप आकर, उसे नमस्कार करके, अपनी भक्ति प्रदर्शित की " आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है" इत्यादि वचन कहकर, चक्रवर्तीको वह बाण वापस दे और सत्कारमें भेंट दे, चक्रवर्ती भी उसका आनन्दसे स्वीकार करके, उस देवका यथायोग्य सत्कार करके, स्वस्थान प्रति जानेके लिए सम्मति दे। इसी तरह पुनः वरदाम तथा प्रभास तीर्थको साधता है। इस प्रकार ये तीर्थ लवणसमुद्रमें आए हैं। इसके सिवा चार बड़े पातालकलश, लघुपातालकलश, वेलंधरपर्वत, लवणसमुद्रकी जलशिखा . आदि वर्णन किंचित् आगे कहा गया है। विशेष तो अन्य ग्रन्थोंसे देख ले। तृतीय धातकीखण्ड वर्णन-इस लवणसमुद्रके बाद चार लाख योजन चौडा और पर्यन्तमें 4110961 योजन २२२परिधिवाला, इषुकार पर्वतोंसे पूर्व पश्चिमसे दो विभागोंमें विभाजित, अतः पूर्व-पश्चिम छः छः (कुल-१२) वर्षधर पर्वतों तथा सात सात (7 + 7 कुल - 14) महाक्षेत्रोंसे विस्तृत ऐसा धातकीखण्ड आया है / इस खण्डमें पूर्वपश्चिममें दो मेरु आए हैं, ये मेरु जम्बूद्वीपके मेरुसे न्यून प्रमाणवाले हैं, शेष सर्व व्यवस्था जम्बूद्वीपके मेरु तुल्य समझें, इतना ही नहीं लेकिन द्रह-कुंडकी गहराई, मेरुके सिवा सर्व पर्वतोंकी ऊँचाई आदि सब जम्बूद्वीप तुल्य समझना। नदी-द्वीप-द्रह-कुंड वनमुखादि विस्तारनद्यादिकी गहराई-द्रहोंकी लम्बाई जम्बूद्वीपसे द्विगुण जानें / जैसे जम्बूद्वीपमें, भरत, महाविदेहादि जो क्षेत्र-पर्वतादिके नाम हैं, वैसे ही नामोंवाले क्षेत्रादि यहाँ सोच लेना। इति धातकीखण्डवर्णन // . चतुर्थ कालोदधि वर्णन-यह समुद्र 8 लाख योजन चौडा और 9170605 योजन पर्यन्त परिधिवाला है२२३ / जैसे लवणसमुद्रमें चन्द्र सूर्यादि द्वीप हैं वैसे यहाँ भी समझना / लवणसमुद्रकी तरह पातालकलशोंका अभाव समझना, अतः ज्वार-भाटा भी होते नहीं, उसका जल भी उछलता नहीं है, लेकिन ध्यानस्थ योगीकी तरह शांत होता है / साथ ही जल चढ़-उतर स्वभावसे रहित है / इति कालोदधिवर्णन // - 222. धायईखण्ड परिरओ ईतालदसुत्तरा सतसहस्सा / ___णवयसया एगट्ठा किंचि विसेसेण परिहीणा // 1 // 223. 'एक्का गउई सतराई सहस्सा परिरओ तस्स / अहियाई छच्च पचुत्तराई कालोदधिवरस्स // 1 // .कोडी बातालीस सहस्स दुसया य अउणपण्णासा / माणुस खेत्त परिओ एमेव य पुक्खरद्धस्स // 2 // ' ब. सं. 27