________________ 212 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 स्व-पर बुद्धिके विकासके लिए यह विषय पाठकोंको विशेष उपयोगी होगा। 'अनुवादक'] 'मण्डल' अर्थात् क्या? चन्द्र और सूर्य मेरुपर्वतसे कमसे कम 44820 योजनकी अबाधा पर रहनेपूर्वक मेरुको प्रदक्षिणाके क्रमसे सम्पूर्ण कर ले उस प्रदक्षिणाकी पंक्तिको एक 'मण्डल' कहा जाता है / चन्द्र-सूर्यके ये मण्डल वहीं ही रहनेवाले कायमी मण्डल जैसे (स्वतन्त्र ) मण्डल नहीं हैं परन्तु चन्द्र-सूर्यका जो स्थान बताया गया है उतनी (समभूतलसे सू० 800, चं० 880 योजन ) ऊँचाई पर रहकर चरस्वभावसे मेरुकी चारों बाजू पर प्रदक्षिणा करते अपने विमानकी चौडाई-प्रमाण जितना क्षेत्र रोकते जाने पर जो कल्पित वलय हो उस वलयको 'मण्डल' कहा जाता है, अर्थात् चन्द्र-सूर्यका मेरुके प्रदक्षिणा करने पूर्वक चार करनेका चक्राकारमें जो नियत मार्ग हो उसे 'मण्डल' कहा जाए / चन्द्रके 15 मण्डल हैं और सूर्यके 184 मण्डल हैं / दक्षिणायन-उत्तरायणके .. विभाग, दिवस और रात्रिके समयमें न्यूनाधिकत्व, सौरमास-चान्द्रमासादि व्यवस्था आदि घटनाएँ सूर्य-चन्द्रके इन मण्डलोंके आधार पर ही उत्पन्न होती हैं। ___ यहाँ आगे जणाता है इसके आधार पर, दो सूर्योके परिभ्रमणसे, एक सम्पूर्ण मण्डल होता है / तथा कर्कसंक्रान्तिके प्रथम दिन पर वादी-प्रतिवादीकी तरह आमनेसामने समश्रेणिमें निषध और नीलवन्त पर्वतके ऊपर, उदित हुए दोनों सूर्य मेरुसे 44820 यो० प्रमाण कमसेकम अबाधा पर रहे हैं / वहाँसे प्रथम क्षण-समयसे ही क्रमशः अन्य मण्डलकी कर्णकला तरफ दृष्टि रखते हुए 'किसी एक प्रकारकी गति विशेष 'से कला-कलामात्र खसकते खसकते ( अर्थात् अबाधा को क्रमशः ज्यादा ज्यादा करते हुए ) जाते होनेसे सूर्य-चन्द्रके ये मण्डल२२७ निश्चयपूर्वक सम्पूर्ण गोलाकार जैसे मण्डल नहीं हैं, परन्तु मण्डल जैसे होनेसे 227. 'रविदुगभमणवसाओ, निष्फज्जइ मण्डलं इह एगं / तं पुण मण्डलसरिसं, ति मण्डलं वुच्चइ तहाहि // 1 // गिरि निसढनीलवन्तेसुं, उग्गयाणं रवीण कक्कमि / / पढमाउ चेव समया, ओसरणेणं जओ भमणं // 2 // तो नो निच्छयस्वं निष्फज्जइ मण्डलं दिणयराणं / चंदाण वि एवं चिअ, निच्छयओ मण्डलाभावो // 3 // रविबिंबे उ जियंगं तावजुयं, आयवाउ न उ जलणे / जमुसिणफासस्स तहिं लोहियवण्णस्स उदओत्ति // 4 // '