________________ सूर्य-चन्द्रका सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या ] गाथा 44 [ 105 अवतरण-अब व्यन्तरेन्द्रोंके तथा (समान वक्तव्य होनेसे) चन्द्र-सूर्यके सामानिक देवों तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका निरूपण करते हैं सामाणियाण चउरो, सहस्स सोलस य आयरक्खाणं / पत्तेयं सव्वेसि, वंतरवइ-ससिरवीणं च // 44 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 44 // विशेषार्थ—पहले भवनपति देवोंके सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या कही है उसी तरह व्यन्तरके इस निकायके बत्तीस इन्द्र तथा ज्योतिषी निकायके सूर्य और चन्द्र (ये दो ही इन्द्ररूप होनेसे ) इस प्रकार चौंतीस इन्द्र हुए। उसमें प्रत्येक इन्द्रके चार चार हजार सामानिक देव होते हैं और सामानिक देवोंसे चारगुने अर्थात् सोलह सोलह हजार आत्मरक्षक देव प्रत्येक इन्द्रके होते हैं और पूर्वोक्त कथनानुसार उनकी सेवामें वे देव निमग्न होते हैं / [44] // प्रत्येक व्यन्तरेन्द्राश्रयी१२७ सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका यन्त्र // निकाय नाम | उत्तरेन्द्र | सामानिक | आत्मरक्षक | दक्षिणेन्द्र | सामानिक | आत्मरक्षक 1. पिशाचनि० काल 16000 महाकाल 4000 | 16000 2. भूतनि० स्वरूप प्रतिरूप 3. यक्षनि० पूर्णभद्र मणिभद्र 4. राक्षसनि० भीम महाभीम 5. किन्नरनि० : किन्नर किंपुरुष 6. किंपुरुषनि० सत्पुरुष महापुरुष 7. महोरगनि० | अतिकाय महाकाय 8. गांधर्वनि० गीतरति चार हजार सोलह ह. | गीतयश | चार हजार सोलह ह. . // ज्योतिषी निकायके इन्द्राश्रयी सामानिक-आत्मरक्षक देवोंकी संख्याका यन्त्र // 4000 ज्यो. नाम सामानिक संख्या | आत्मरक्षक संख्या 1. सूर्येन्द्रको चार हजार सोलह हजार 2. चन्द्रेन्द्रको चार हजार सोलह हजार // इति प्रस्तुत भवनद्वारे व्यन्तराधिकारः समाप्तः / / . 127. वाणव्यन्तरोंकी सामानिकादि संख्या व्यन्तरे द्रोंके अनुसार समझें / . बृ. 14