________________ नक्षत्र मण्डलोंके आयाम-विष्कंभ और परस्पर अंतर ] गाथा 80-81 [ 171 नक्षत्रमण्डलोंका कुल क्षेत्र जो 510 योजन प्रमाण कहा है वह भी बराबर आ जाता है / इति क्षेत्रप्ररुपणा // नक्षत्रमण्डलोंके आयाम-विष्कम्भादि-अब हरएक नक्षत्रमण्डलका आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी होती है तो सूर्य अथवा चन्द्रका सर्वाभ्यन्तरमण्डल जिस स्थानमें होता है उसी स्थान पर प्रथम नक्षत्रमण्डल होता है; अतः चन्द्र-सूर्यके सर्वाभ्यन्तरमण्डलका मेरुपर्वतके व्याघातमें जितना विस्तार प्रथम कहा है उसके अनुसार मेरुपर्वतको व्याघातमें नक्षत्रोंके सर्वाभ्यन्तरमण्डलका विस्तार, और सूर्यके सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी परिधिकी तरह नक्षत्रों के सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी परिधि आदि सोचें, उसी तरह अर्थात् सूर्यके सर्वबाह्यमण्डलकी जो परिधिप्रमाण प्रथम बतायी है उसी तरह नक्षत्रों के सर्वबाह्यमण्डलकी परिधिका प्रमाण समझें, विशेषमें इतना खयाल रखना कि सूर्यके मण्डलका आयाम-विष्कम्भ 46 यो. आदि है तदनुसार यहाँ नक्षत्रमण्डलका आयाम-विष्कम्भ आदि नक्षत्रोंके विमानका जो योजन प्रमाण ( एक कोसका ) कहा है वैसा समझें / / प्रथम नक्षत्रमण्डलमें अभिजित् , श्रवण, धनिष्ठा, शततारा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और स्वाति ये बारह नक्षत्र आए हैं। ये बारह नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डलमें एक बाजू पर अर्धमण्डल भागमें गमन करते हैं, जब कि दूसरे अर्धमण्डल भागमें उनके सामने उन्हीं नामोंके नक्षत्र अनुक्रमसे गमन करते हैं। सर्वाभ्यन्तरमण्डल पश्चात् दूसरे नक्षत्रमण्डलमें हमेशा पुनर्वसु और मघाका चार (गति) है। तीसरेमें कृत्तिका, चौथेमें चित्रा और रोहिणी, पाँचवेंमें विशाखा, छठेमें अनुराधा, सातवेंमें ज्येष्ठा और आठवेंमें अर्थात् सर्व बाह्य-अन्तिममण्डलमें आर्द्रा, मृगशीर्ष, पुष्य, आश्लेषा, मूल, हस्त, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढ़ा इन आठ नक्षत्रोंका गमन होता है / . इसमें इतना विशेष जानें कि सर्वाभ्यन्तरमण्डलके 12 नक्षत्रों में से अभिजित् नक्षत्र सबसे अन्दर चलता है, (अतः स्वमण्डलकी सीमाको छोड़कर जम्बूद्वीपकी तरफ रहता अन्दरके भागमें चलता है) मूल नक्षत्र सर्वनक्षत्रोंसे बाहर चलता है। ( अर्थात् स्वमण्डल स्थानसे अभिजित्वत् सीमाको छोड़कर लवणसमुद्रकी तरफ रहता हुआ चलता है, वह ) स्वाति नक्षत्र सर्व नक्षत्रोंकी जो सतह है उससे थोड़ा ऊँचा रहकर चलता है, और भरणी नक्षत्र स्वमण्डल स्थानमें अन्य नक्षत्रोंकी अपेक्षासे नीचे चलता है। इति आयामविष्कम्भादि प्ररूपणा // ___ नक्षत्रोंका परस्पर अन्तर-मण्डलवर्ती नक्षत्रों के विमानका परस्पर अन्तर दो योजनका कहा है, इसी अभिप्रायको अभिप्रेत कथन श्री शान्तिचन्द्रजी उपाध्यायकृत जम्बू, प्रज्ञप्तिकी वृत्तिमें है तथा श्री धर्मसागरगणिजी कृत टीकामें भी यही अभिप्राय सूचित है, परन्तु प्रथम नक्षत्रमण्डलके महान् घेरेकी योग्य पूर्ति करनेके लिए नक्षत्रोंकी कथित प्रथम मण्डल