________________ 126 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 57-58 . अब महर्द्धिकपनका क्रम गतिसे विपरीत प्रकारका जाने अर्थात् जिसकी गति ज्यों ज्यों मन्द होती है त्यों त्यों उसमें महर्द्धिकपना विशेष होता है। गतिका क्रम चन्द्रसे लेकर आगे आगे बताया, वैसे ही यहाँ महर्द्धिकपनका क्रम पश्चानुपूर्वीसे लेनेका होनेसे तारेका गतिक्रम अति शीघ्र होनेसे तारे अल्पऋद्धिवाले हैं, उससे नक्षत्र अधिक ऋद्धिवान्, उससे ग्रह विशेष ऋद्धिवाले, उससे सूर्य अधिक ऋद्धिशाली है और उससे भी चन्द्र महाऋद्धिवान है। व्यवहारमें भी महान् पुरुष और राजामहाराजा और महालक्ष्मीवान् मन्द मन्द गमन करनेवाले, शुभविहायोगतिवाले प्रायः होते हैं, जब कि मध्यम और अल्पऋद्धिवाले प्रायः दौड़धूप करके चलनेवाले होते हैं / विमानको वहन करनेवाले देव किस प्रकार होते हैं उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषीदेवोंके विमान तथाविध जगत्स्वभावसे ही स्वयमेव निरालम्बरूपसे विचरते हैं, तथापि केवल आभियोगिक ( दास ) देव तथाविध नामकर्मके उदयसे स्वसमानजातिमें अथवा तो अपनेसे हीनजातिके देवोंमें अपनी कीर्तिकला प्रकट करनेके लिए अत्यन्त प्रमोदरूपसे चन्द्रादिके विमानके नीचे सिंहादि रूपको धारण करके विमानोंका सतत वहन करते हैं। ऐसा कार्य करने पर भी उन्हें तनिक भी दुःख नहीं होता है क्योंकि वे मनमें गौरव धारण करते हैं कि हम दासत्व करते हैं लेकिन किसका ? सकल लोकप्रसिद्ध ऐसे चन्द्रसूर्य जैसे इन्द्रोंका, हम कुछ ऐसे-वैसेके सेवक नहीं हैं, इस तरह स्वजाति अथवा दूसरोंको स्वसमृद्धि दर्शनार्थे समस्त स्वोचितकार्य प्रमुदितरूपसे करते हैं। जिस तरह इस लोकमें भी कोई स्वोपार्जित कर्मोदयसे दासत्व अनुभव करता हो लेकिन यदि वह किसी समृद्धिवान्के यहाँ हो तो अपने दासत्वका शोक न करके उसके विपरीत खुशीसे गर्विष्ठ होकर सभी कार्य करता है, उसका कारण एक ही है कि मैं सेवक भले होऊं लेकिन किसका ? तो विख्यात नायकका हूँ, जिससे अन्य दासजनोंकी अपेक्षासे तो मैं विशेष सत्ताशाली हूँ। व्यवहारमें भी हम प्रसंगोपात बोलते हैं कि-'भाई, नौकर भले ही सही लेकिन राजाके हैं।' अब वहन करनेवाले वे देव किस रूपको धारण करनेवाले, कितने और किस दिशामें होते हैं ? उनका वर्णन करते हैं। चन्द्र के विमानको वहन करनेवाले सोलह हजार (16000) देव हैं। वे देव चतुर्दिशामें विभक्त होते हैं, अर्थात् हमारी कल्पनासे पूर्वदिशाके छोर पर 4000 देव