________________ 114 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 50-51 अत्यन्त प्रकाश करनेवाले होनेसे 'ज्योतिः' शब्दसे कहने योग्य विमान वह 'ज्योतिः' कहलाते हैं और उनमें बसनेवाले (देव) वे 'ज्योतिष्काः ' कहलाते हैं / ये देव अत्यन्त प्रज्वलित तेजवाले, देदीप्यमान कान्तिवाले तथा दिग्मंडलको स्वप्रभासे उज्ज्वल तेजपूर्ण करनेवाले होते हैं। प्रथम उनका वर्णन किया गया है। वे मेरुके गोलाकार मध्यभागवर्ती, रत्नप्रभा पृथ्वीमें आई हुई समभूतला पृथ्वीसे लेकर सातसौ नब्बे योजन (790) तक उनका अस्तित्व नहीं है, उन सातसौ नब्बे योजनोंके छोड़नेके बाद तुरंत ही ज्योतिषी देवोंका स्थान आरम्भ होता है, इस आरंभसे लेकर ऊपरके एकसौ दस (110) योजनों में ( अर्थात् तिर्यक्लोकके अन्तभाग तक ) पांच प्रकारके ज्योतिषी देव 'बसते हैं। ७९०में 110 जोड़नेसे 900 योजनप्रमाण तिर्यक्लोकका ऊर्ध्वभाग संपूर्ण आ जाता है। [49] अवतरण-ऊपरकी गाथामें ज्योतिषीदेवोंका वास 110 योजन क्षेत्रमें बताया / अब ५०वीं गाथासे सामान्यतः सूर्य-चन्द्रका स्थान बताकर जिन नक्षत्रोंकी गतिकी विशेषताएँ हैं उन्हें कहते हैं। और पश्चात् ५१वीं गाथामें पांचों ज्योतिषीयोंका स्थान, उनका क्रम और परस्पर अन्तर कहते हैं। तत्थ १३°रवी दसजोयण, असीइ तदुवरि ससी य रिक्खेसु / अह भरणि-साइ उवरि, बहि मूलोऽभिंतरे अभिई / / 50 // तार-रवि-चन्द-रिक्खा, बुह-सुक्का जीव-मंगल-सणिया / सगसयनउय दस-असिइ, चउ चउ कमसो तिया चउसु // 51 // . [प्र० गा० सं० 12] गाथार्थ-समभूतला पृथ्वीसे (790 ) सातसौ नब्बे योजन दूर जानेके बाद दस योजनके अन्तर पर सूर्य है। वहाँसे अस्सी योजन दूर चन्द्र है और उसके बाद नक्षत्र हैं। उनमें सबसे नीचे भरणी और सबसे ऊपर स्वातिनक्षत्र है / सर्व बाह्य भागमें मूल और सर्व अभ्यन्तर भागमें अभिजित् नक्षत्र है / समभूतला पृथ्वीसे 790 ( सातसौ नब्बे ) योजन पर तारे, उनके बाद दस योजनके अन्तर पर सूर्य, फिर अस्सी योजन जाने पर चन्द्र, वहांसे चार योजन पर नक्षत्र मण्डल, __ 130. पचासवीं तथा इक्कावनवीं इन दोनों गाथाओंमें सूर्यादिका स्थान ग्रन्थकारने दो बार बताया है। दो बार बताया है इसलिए गाथाके कर्ता एक ही होंगे या दोमसे एक प्रक्षेप गाथा होगी ?